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हर-हर साँस नई ख़ुशबू की इक आहट-सी पाता है / खलीलुर्रहमान आज़मी

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हर-हर साँस नई ख़ुशबू की इक आहट-सी पाता है
इक-इक लम्हा अपने हाथ से जैसे निकला जाता है ।

दिन ढलने पर नस-नस में जब गर्द-सी जमने लगती है
कोई आकर मेरे लहू में फिर मुझको नहलाता है ।

सारी-सारी रात जले है जो अपनी तन्हाई में
उनकी आग में सुब‌ह का सूरज अपना दिया जलाता है ।

मैं तो घर में अपने आप से बातें करने बैठा था
अनदेखा-सा इक चेहरा दीवार पे उभरा आता है ।

कितने सवाल हैं अब भी ऐसे, जिनका कोई जवाब नहीं
पूछनेवाला पूछ के उनको अपना दिल बहलाता है ।