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अब किसे बनवास दोगे / अध्याय 2 / भाग 1 / शैलेश ज़ैदी

बातें सभी करते हैं मायावी,
रहते हैं व्यस्त सब जुटाने में हथियार,
चाहते हैं होना एक-दूसरे पर हावी
अर्थहीन शब्दों का
करते हैं आये दिन व्यापार
विकसित, विकासशील और अल्पविकसित,
स्थिति सभी देशों की
लगभग है एक सी।

रेंगती है आसुरी मनोवृत्ति
सैकड़ों फनों के साथ
चौड़े विशाल वक्षों के भीतर से
झाँकती हैं, चारों दिशाओं में
दैत्याकार शक्लें
लम्बी जबानें,
लाल-लाल आँखें,
भूखी, अतृप्त-आत्माएँ
जनवादी चेहरों से आती है
सुलगते बारुद की महक
शक्ति-सम्पन्ना देश
लम्बी नुकीली उंगलियों पर चलाते हैं
लहू की रेलगाड़ी -
छक-छक-छकाछक!
कांटे ही काँटे हैं,
सूझता नहीं है पथ
छाया है चारों दिशाओं में अन्धकार

व्याकुल, निराश, संत्रास-ग्रस्त पृथ्वी,
याचना की मूर्त्ति सी बनी,
सिर धुनती है,
चीखती चिल्लाती है,
काँप-काँप जाती है
वैज्ञानिक विकास के रेतीले शिखरों पर
खड़े हुए देशों का संवेदन-शून्य मन,
खो चुका है आस्वादन
जीवन का,
उड़ता है आदमी हवा में
जैसे एक तिनका।
धरती और धरती के बीच
खाई बहुत गहरी है