भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब किसे बनवास दोगे / अध्याय 2 / भाग 2 / शैलेश ज़ैदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं करता हूँ महसूस
कि शायद मुझमें नहीं है
खाई पाटने की ताकत
जुटाना चाहता हूँ मैं अपनी मुटिठ्यों में,
आदमी का हक बाँटने की ताकत
और जब देखता हूँ अपनी ढीली मुटिठ्यों को, हथेली की रेखाएँ
रेंग जाती हैं मेरे भीतर
तराशती हैं याददाश्तों के पत्थर
उभारती हैं ताकतवर छवियाँ
मुझे लगता है कि इन छवियों से मिलकर,
हो जाता है आसान,
आदमी को उसका हक बाँटना
मुझे आता है याद
कि स्थितियाँ उस समय भी
लगभग ऐसी ही थीं,
फैला था इसी तरह आतंक पृथ्वी पर
चारों ओर,
आसुरी शक्तियों से प्रकम्पित थी धरती
इसी तरह

मायावी घटाएँ,
भूमण्डल को घेरकर
कर रही थीं तारीक
सुर और असुर शब्दों के बीच
पिस रही थी मानव की संस्कृति
इसी तरह
बारीक!
रेंगती थीं सैकड़ों फनों के साथ
लुंज-पुंज ! विशाक्त ! अपाहिज मान्यताएं
वैसे तो सुर और असुर होना,
हो सकता है ईश्वरीय वरदान और
अभिशाप का नतीजा
पर मनुष्य होना है ईश्वर की इच्छा
और ईश्वर की इच्छा
उसके वरदान और अभिशाप से
कहीं अधिक ताकतवर है
क्योंकि वरदान है उसकी इच्छा के समक्ष
सिर झुकाने का पुरस्कार,
और अभिशाप इसी इच्छा की
अस्वीकृति पर
लगी हुई ठोकर ।
इसलिए वह जो सही अर्थों में मनुष्य है,
पूर्ण मानव है,
ईश्वरीय संस्कृति का उद्गम है,
मर्यादा पुरुषोत्तम है,
मानव का ही नहीं,
स्वयं ईश्वर का प्रियतम है,
उसकी यह पूर्णता ही
ईश्वरीय लीला है
और यह लीला आदमी को देती है
आज़ादी आदमी की तरह जीने की
पृथ्वी को करती है सुसंस्कृत
मैं इसी लीला में देखता हूँ
सौन्दर्यशील ईश्वर के,
अनश्वर, असीम सौन्दर्य की छटा
मैं इसी में करता हूँ महसूस
आदमी से आदमी के प्यार की घटा