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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ - ११

हो सावेश नहीं मनुष्य करता है कौन-सी क्रूरता।
हो क्रोधान्धा महा अनर्थ करते होता नहीं त्रास्त है।
क्या है बर्बरता महा अधामता क्या दानवी कृत्य है।
प्राणी है यह सोच ही न सकता विक्षिप्त हो वैर से॥4॥

चेष्टाएँ कितनी हुईं, तम टले, पापांधाता दूर हो।
अत्याचार निरस्त हो, दनुजता हो वज्रपातांकिता।
तो भी क्या पशुता टली, अधामता क्या हो सकी धवंसिता।
क्या धीरे त्रास्त हुई सुने नरक की हृत्कम्पकारी कथा॥5॥

तो क्या है यमयातनातिपरुषा क्या है महा भर्त्सना।
तो क्या हैं विकरार्लमूर्ति यम के उद्दंड दूताग्रणी।
जो हो शंकित अल्प भी न उनसे पापीयसी वृत्तिक तो।
क्या है वैतरणी विभीषण क्रिया क्या नारकीयाग्नि है॥6॥

जो होते कुछ भी संशक, मति तो होती नहीं तामसी।
तो पाती तमसावृता न दृग की ज्योतिर्मयी दृष्टि भी।
तो व्यापी रहती नहीं हृदय में दुर्वृत्तिक की कालिमा।
हैं जो लोग मदांध वे न डरते हैं अंधतामिस्र से॥7॥

पाई है उसमें प्रभूत पशुता दुर्वृत्ताता दानवी।
हिंसा हिंसक जन्तु-सी कुटिलता सर्पाधिकराजोपमा।
उत्पात-प्रियता प्रभंजन समा दुर्दग्धाता वद्रि-सी।
कुंभीपाक विपाक बात सुन क्यों काँपें महापातकी॥8॥

देता है अलि-डंक-सा दुख उसे जो पंक-निक्षेप हो।
होती है अहि-दंशतुल्य परुषा पीड़ा अवज्ञा हुए।
देखे कीत्तिक-कलाप-लोप उसको होता महाताप है।
पाता रौरव-वास दीर्घ दुख है खो गौरवों को सुधी॥9॥

होते हैं उसके विचार-तरु के पत्तो छुरा-धार से।
देते हैं कर जो विपन्न बहुधा रक्ताक्त उद्बोधा को।
जो होके विकलांग भाव उसके होते व्यथाग्रस्त हैं।
तो क्या है असिपत्रा-से नरक का वासी नहीं भ्रष्ट-धी॥10॥

है दुर्गन्धा-निकेतना कलुषिता निन्द्या जुगुप्सा-भरी।
हैं उन्मादमयी सनी रुधिकर से हैं लोक-हिंसारता।
होती है खर गृधारदृष्टि उनकी मांसाशिनी निम्नगा।
भू में ही कितनी कराल कृतियाँ है कालसूत्रोपमा॥11॥

जोंकें हों उसमें प्रकम्पितकरी दुर्दशनों से भरी।
होवें भूरि विषाक्त व्याल उसके फूत्कार से फूँकते।
हो कालानन-सा कराल वह या हो आस्य नागेन्द्र का।
थोड़ी भी कब अंधाकूप परवा पापांधाता को हुई॥12॥

लोहे से विरची विभावसु बनी आलिंगिता कामिनी।
दे अत्यंत व्यथा, नुचें नरक में सर्वांग की बोटियाँ।
सा सुन्दर गात में कुलिश-से काँटे सहस्रों गड़ें।
क्यों कामी सुन वज्रकंटक-कथा कामांधाता से बचे॥13॥

जो खाते पर-मांस हैं न उनका क्यों मांस खाते वही।
जैसा है नर पाप-कर्म, मिलता है दण्ड वैसा वहाँ।
चाहे हो अथवा न हो नरक, क्या आदर्श भी है नहीं।
तो है शोक, विलोक शाल्मलिक्रिया जो हो न शालीनता॥14॥

देखा जो दृग खोल के अवनि तो है वंचितों से भरी।
हैं रोते मिलते अनेक कितने पाते नहीं रोटियाँ।
लाखों का भर पेट अन्न मिलना है स्वप्न के दृश्य-सा।
लाखों की कृमि-भोजनादि नरकों-सी नारकी वृत्तिक है॥15॥

हो-हो लोलुपता-प्रपंच-पतिता हो लोभ से लालिता।
ला, ला, के पड़ फेर में, ललकती, हो लालसा से भरी।
पाती हैं पति यातना निरय की हो लीन दुर्नीति में।
लालाभक्षनिकेतना अललिता लालायिता वृत्तिकयाँ॥16॥

चक्की में पिसते नहीं विवश हो, होते व्यथाग्रस्त क्यों।
कैसे शूकर से कदर्य्य, मुख बा-बा लीलना चाहते।
जो होते न कुकर्म में निरत तो जाता न ता गला।
कैसे शूकर-आननादि नरकों-सी यंत्रणा भोगते॥17॥

देखे दुर्गति पाप में निरत की, कामांधा की दुर्दशा।
नाना शूल-समूह से हृदय को पाके विधा प्रायश:।
बारंबार विलोक मत्त मति को मोहादि से मर्दिता।
होती हैं सुख ज्ञात संडसन की सारी सुनी साँसतें॥18॥

होती है सुखिता पिये रुधिकर के, है नोचती बोटियाँ।
प्यारा है उसको निपात वह है उत्पात-उत्पादिका।
लेती है प्रिय प्राण प्राणिचय का, है त्राकण देती कहाँ।
क्रूरों की कटुतामयी कुटिलता है गृधारभक्षोपमा॥19॥

पक्षी को पशुवृन्द को पटक के हैं पीटती प्रायश:।
बाणों से कर विध्द गृधार बन हैं देती बड़ी यंत्रणा।
हैं कोंचा करती सदैव, बढ़के हैं गोलियाँ मारती।
हैं विश्वासन-सी निकृष्ट, नर की मांसाशिनी वृत्तिकयाँ॥20॥

जो होवें बहु गृधार क्षीण खग को चोंचे चला चोंथते।
जो हो निर्बल को विदीर्ण करते हो क्रुध्द क्रूराग्रणी।
जो निर्जीव शरीर को लिपट हों कुत्तो कई नोचते।
तो श्वानोदन-दृश्य दृष्टिगत क्यों होगा न भू में किसे॥21॥

क्या हैं प्राणिसमूह को न डसते नानामुखी सर्प हो।
होती है उनकी कशा कलुषिता क्या विज्जुतुल्या नहीं।
क्या वे ले शित शेल हैं न कितने हृत्पिंड को बेधाते।
शूल-प्रोत-समान क्या न महि में है शूलदाताग्रणी॥22॥

हैं दुर्गंधामयी महाकलुषिता बीभत्सता से भरी।
नाना मूर्तिमती करालवदना क्रोधान्विता सर्पिणी।
है उच्छृंखलता-रता बहुमुखी आतंक-आपूरिता।
पापी की पतिता प्रवृत्तिक-सदृशा वैश्वासिनी प्रक्रिया॥23॥

है डाला करती विपन्न मुख में सीसा गला प्रायश:।
भोगे भी यह भोग प्राण कढ़ते हैं पातकी के नहीं।
खाता मुद्गर है, प्रहार सहता है, छूटता जी नहीं।
कैसी है यह क्षार कर्दमकृता दु:खान्त दृश्यावली॥24॥

रोता है पिटके कठोर कर से है यंत्रणा भोगता।
बोटी है कटती, समस्त तन को है नोचती दानवी।
है दुर्भाग्य, महा विपत्तिक यह है, है मर्मवेधी व्यथा।
जो रक्षोगण-भोजनावधिक अघी है छूट पाता नहीं॥25॥