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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ - १०

नाम हैं कर्म-भोग का लेते।
पर बने हैं बहुत बड़े भोगी।
भाग्य की भूल में पड़े हैं जब।
तब भलाई न दैव से होगी॥5॥

चौंक भूले हुए हरिण की-सी।
किसलिए नर छलाँग भरता है।
कर रहा है सदैव मनमानी।
तो वृथा दैव-दैव करता है॥6॥

जो नहीं ऑंख खोलकर चलते।
देखकर देख जो नहीं पाते।
दैव पर भूल जो करें भूलें।
किसलिए वे न ठोकरें खाते॥7॥

हाथ में विश्वशक्ति है उसके।
वह विबुध-वृन्द-नेत्र-तारा है।
अन्य बलवान कौन है ऐसा।
आत्मबल का जिसे सहारा है॥8॥

(5)

नर नभग के सदृश कैसे।
नभ में उड़ते दिखलाते।
सुरपुर-विमान जैसे ही।
क्यों विविध विमान बनाते॥1॥

क्यों ल तार बन पाते।
क्यों घड़ियाँ घर-घर चलतीं।
क्यों विपुल दीप-मालाएँ।
विद्युत-विभूति से बलतीं॥2॥

बातें सहस्र कोसों की।
क्यों घर-बैठे सुन पाते।
बहु अन्य-देश-गायक क्यों।
आ पास स्वगाने गाते॥3॥

क्यों विविध कलें बन-बनकर।
दिखलातीं दिव्य कलाएँ।
वह बल क्यों मिलता जिससे।
टलती हैं विपुल बलाएँ॥4॥

लाखों कोसों की दूरी।
क्यों परम अल्प हो जाती।
बहु-दूर-स्थित द्वीपावलि।
क्यों घर-ऑंगन बन जाती॥5॥

कैसे भावुक को मिलती।
बहु भव-विधायिनी बातें।
वर ज्योति-विमंडित बनती।
कैसे तमसावृत रातें॥6॥

बन-बन विचित्र यंत्रों में।
अद्भुत क्रीड़ा-शालाएँ।
क्यों हार गले का बनतीं।
मोहक तारक-मालाएँ॥7॥

जो कर्म-कुशलता दिखला।
जागतीं न विज्ञ जमाते।
कैसे अवगत हो पातीं।
विज्ञान की विविध बातें॥8॥

(9)
कर्मयोग
छप्पै

नयन मनुज के सदा सफलता-मुख अवलोकें।
दोनों कर बन परम कान्त सुरतरु-फल लोकें।
उसको बहती मिले मरु-अवनि में रस-धारा।
वह पाता ही रहे अमरपुर-सा सुख न्यारा।
कैसे किस साधन के किये? तो उत्तार होगा यही।
सब दिनों कर्मरत जो रहा सिध्दि पा सका है वही॥1॥

उषा राग को लसित कर्म अनुराग बनाता।
कर्मसूत्र में बँधा दिवाकर है दिखलाता।
रजनी-रंजन कर्म कान्त बन है छबि पाता।
अवनीतल पर सरस सुधारस है बरसाता।
है करती रहती विश्व को विदित कर्म की माधुरी।
हो तारकावली से कलित प्रति दिन रजनी सुन्दरी॥2॥

परम पवि-हृदय-मेरु-प्रवाहित निर्झर द्वारा।
प्रस्तर-संकुल अवनि-मध्य-गत सरिता-धारा।
फल से विलसे विटप रंग लाती लतिकाएँ।
सौरभ-भ प्रसून विकच बनतीं कलिकाएँ।
देती है भव को, कर्म की अनुपमता की सूचना।
है कर्म परम पावन सरस सुन्दर भावों में सना॥3॥

कैसे मिलते रत्न क्यों उदधिक-मंथन होता।
कैसे कार्य-कलाप बीज कल कृति के बोता।
कैसे जड़ता मध्य जीवनी-धारा बहती।
कैसे वांछित 'सिध्दि' साधना-कर में रहती।
कैसे तो वारिद-वृन्द वर वारि बरस पाते कहीं।
जो कर्म न होता तो रसा सरसा हो सकती नहीं॥4॥

कर्महीनता मरण, कर्म-कौशल है जीवन।
सौरभ-रहित सुमन-समान है कर्महीन जन।
तिमिर-भरित अपुनीत इन्द्रियों का वर रवि है।
कर्म परम पाषाण-भूत मानस का पवि है।
है कर्म-त्याग की रगों में परिपूरित निर्जीवता।
है कर्मयोग के सूत्र में बँधी समस्त सजीवता॥5॥

(10)
शार्दूल-विक्रीडित

क्या है कर्म अकर्म धर्म किसको हैं मानते दिव्य-धी।
क्या है पुण्य-विवेक, पाप किसको विद्वज्जनों ने कहा।
मीमांसा इसकी हुई कम नहीं, है आज भी हो रही।
होता है न रहस्य-भेद फिर भी 'धर्मस्य सूक्ष्मा गति'॥1॥

नाना तर्क-वितर्क हैं विषय हैं वे जो द्विधाग्रस्त हैं।
ऐसे हैं फिर भी विचार कितने जो सत्य-सर्वस्व हैं।
सा मानवधर्मग्रंथ जिनको हैं तत्तवत: मानते।
तो भी क्या वसुधा समस्त जन के वे सर्वथा मान्य हैं॥2॥

प्राणी हैं परिणाम भूत-चय का, है वृत्तिक भी भौतिकी।
पाते हैं उसमें अत: अधिकता भूतोद्भवा भूति की।
होती है पशुता-प्रवृत्तिक प्रबला कर्मेन्द्रियासक्ति से।
देती है उसको बना अधामता की मूर्ति स्वार्थान्धाता॥3॥