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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ - ९

(2)

देख उत्ताकल तरंगों को।
कार्यरत कब घबराता है।
शक्ति कुंभज-सी धारण कर।
पयोनिधिक को पी जाता है॥1॥

कार्य-पथ का बाधक देखे।
वीर पौरुष से भरता है।
पर्वतों को पवि बन-बनकर।
धूल में परिणत करता है॥2॥

विलोक मूर्ति केशरी की।
गरजती शोणित की प्यारेसी।
शक्ति वीरों की बनती है।
सर्वदा सिंहवाहना-सी॥3॥

पुरन्दर के हाथों से भी।
बात कहते वह है छिनता।
वीरवर भ वीरता में।
वज्र को वज्र नहीं गिनता॥4॥

सत्य पथ पर चोटें खाये।
नहीं वह करता है 'सी' भी।
कब हुई वीरों को परवा।
त्रिकशूली के त्रिकशूल की भी॥5॥

देखकर उनकी बलवत्ताक।
सबल का बल भी है टलता।
अलौकिक वीर-चरित्रों पर।
चक्रधार-चक्र नहीं चलता॥6॥

खलों की खलता का सहना।
वीर को है बहुधा खलता।
किसी पत्थर-सी छाती पर।
वही है सदा मूँग दलता॥7॥

कर्मरत वीरों का कौशल।
चमकता है रत्नों को जन।
फूल के गुच्छे बनते हैं।
हाथ में पड़ साँपों के फन॥8॥

(3)

वज्र को तृण कर देने में।
फड़कती है उसकी नस-नस।
सिन्धु को गोपद करता है।
साहसी का सच्चा साहस॥1॥

राह में अड़ी अड़चनों को।
चींटियों-सदृश मसलता है।
वीर जब बढ़ता है आगे।
काम करके ही टलता है॥2॥

काम जब कसकर करती है।
बिगड़ पाता तब कैसे रस।
सिध्दि कृति की मूँठी में है।
हाथ में उसके है पारस॥3॥

विघ्न हैं विघ्न नहीं करते।
नहीं बाधा बाधा देती।
साहसी का देखे साहस।
आपदा साँस नहीं लेती॥4॥

यत्न कर लोग रत्न कितने।
कीचड़ों में से पाते हैं।
फल लगा उकठे काठों में।
धूल में फूल खिलाते हैं॥5॥

बुध्दि के बल से वश में रह।
विविध ढंगों में ढलती है।
बालकर दीपक-मालाएँ।
दामिनी पंखा झलती है॥6॥

क्या नहीं करता है उद्यम।
कर सके क्या न यत्न न्या।
ऑंख के ता बन पाये।
करोड़ों कोसों के ता॥7॥

खुले ताला के जाती है।
निजी पूँजी देखीभाली
किन्तु है कर्म करों में ही।
सब सफलताओं की ताली॥8॥

(4)

विश्व के थाल में भरा व्यंजन।
बस उसी के लिए परोसा है।
जो खड़ा है स्वपाँव पर होता।
बाहुबल का जिसे भरोसा है॥1॥

है भरा वित्ता जाँघ में जिनकी।
मुँह नहीं ताकते किसी का वे।
कर कमाई कुबेर बन घर में।
बालते हैं प्रदीप घी का वे॥2॥

यह भरा है उमंग से होता।
इंच-भर वह नहीं उभरता है।
करतबी काम कर कमाता है।
आलसी दैव-दैव करता है॥3॥

कौन पड़ भाग्य-फेर में पनपा।
आत्मबल है विभूति का दाता।
एक दो बेर को तरसता है।
दूसरा है कुबेर बन जाता॥4॥