भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ - ८

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चलें सारी चालें उलटी।
भली बातों से मुँह मोड़े।
किसलिए माथा तो ठनके।
किसलिए तो सिर को तोड़े॥5॥

काम के काम न कर पायें।
न तो हित की बातें सोचें।
क्यों न तो ठोकर खायेंगे।
चौंककर सिर को क्यों नोचें॥6॥

कर्म का मर्म बिना समझे।
सदा जो बने रहे पोंगा।
तो न होगा कुछ सिर पकड़े।
हित नहीं सिर कूटे होगा॥7॥

किसी का कर्म-भोग क्या है?
कर्म को कर्म बनाता है।
क्यों पड़े भाग्य फेर में नर।
कर्म ही भाग्य-विधाता है॥8॥

(5)

पिता-वीर्य माता-रज द्वारा है प्राणी बन पाता।
उनके वैभव का प्रभाव उस पर है प्रचुर दिखाता।
प्रकृति कान्त-कर कौशल से है सकल क्रियाएँ करता।
भव के नव-नव चित्रों में है 'रंग' ढंग से भरता॥1॥

गर्भाधन-समय से ही है सृजन-कार्य छिड़ जाता।
गर्भकाल में भी कमाल कम नहीं दिखाता धाता।
बालक जन्म-लाभ कर ज्यों-ज्यों है जगती का बनता।
त्यों-त्यों उसका हृदय-भाव है विविध रसों में सनता॥2॥

विविधिक परिस्थितियाँ उसकी संस्कृति को हैं रच देती।
उसकी मति उन्नत हो-हो बहु शिक्षाएँ है लेती।
बड़े मनोहर दिव्य दृश्य ऋतु की कमनीय छटाएँ।
पंच भूत की बहु विभूतियाँ उमड़ी श्याम घटाएँ॥3॥

द्युमणिदेव की परम दिव्यता, विधु का रस बरसाना।
तारक-चय का चमक-चमककर चमत्कार दिखलाना।
बार-बार घटती घटनाएँ कार्य-कलाप-विपुलता।
देश-काल-व्यापार-विशदता लोक-विधन-बहुलता॥4॥

प्राणिपुंज की प्रवंचनाएँ अद्भुत आपाधापी।
समय-प्रवृत्तिक सामयिकता के परिवर्त्तन बहुव्यापी।
इन सबका प्रभाव अनुभव संसर्ग निसर्गज बातें।
कितने उज्ज्वलतम दिन, कितनी बहु तमसावृत रातें॥5॥

रह निर्माण-निरत प्राणी को अनुप्राणित करती हैं।
नाना भाव विभिन्न प्रकृति में यथाकाल भरती हैं।
यह प्रक्रिया-समष्टि लोक-जीवन की है निर्माता।
शारीरिक संपूर्ण शक्तियों की है यही विधाता॥6॥

यह अदृष्ट है, इसीलिए है सदा अदृष्ट कहाती।
माननीय विधिक की महिमामय विधिक है मानी जाती।
वह ललाट पर नहीं लिखित है, है न कर्म की खा।
किसी काल में उसे किसी ने कहीं नहीं है देखा॥7॥

किन्तु वह बहुत बड़ी शक्ति है, है महानतम सत्ता।
उसमें भरी हुई है जन-जीवन की भूरि महत्ता।
सदुपयोग यदि उसका हो, यदि जाना मर्मस्थल हो।
क कर्म के लिए कर्म तो क्यों न कर्म का फल हो॥8॥

(8)
कर्मवीर
(1)

हाथ-पाँवों के होते कब।
बन सका वह लँगड़ा-लूला।
भाग्य की भूल-भुलैयाँ में।
करतबी कभी नहीं भूला॥1॥

उसी की गति कुछ है ऐसी।
जो नहीं जाती है कूती।
एक करतूती है ऐसा।
बोलती है जिसकी तूती॥2॥

भले ही गोले चलते हों।
कब सका है जी हिल उनका।
वीर कब घबरा जाते हैं।
दलकता है कब दिल उनका॥3॥

थकाहट थका नहीं सकती।
रुकावट रोक नहीं पाती।
काम करनेवाले की धुन।
तोड़ नभ-ता है लाती॥4॥

जो बड़ी जीवट वाले हैं।
न डिगना है उनकी थाती।
कलेजा कभी नहीं हिलता।
सिल बनी रहती है छाती॥5॥

साहसी का साहस देखे।
सिड़ें हैं अपना सिर देती।
बिदअतें बिदअत सहती हैं।
साँसतें साँस नहीं लेतीं॥6॥

सूख जाये समुद्र जो तो।
उसे दम भर में भरते हैं।
काम है कौन नहीं जिसको।
कलेजेवाले करते हैं॥7॥

पैठते हैं पातालों में।
आसमाँ पर उड़ जाते हैं।
काम जिनको प्यारा है वे।
काम कर नाम कमाते हैं॥8॥