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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ - ५

(6)
कर्म का त्याग
(1)

यह सुखद पावन भूति-निकेत।
सुरसरी का है सरस प्रवाह।
वह मलिन रोग-भरित अपुनीत।
कर्मनाशा का है अवगाह॥1॥

यह हिमाचल का है वह अंक।
विबुध करते हैं जहाँ विहार।
जहाँ पर प्रकृति-वधूटी बैठ।
गूँधाती है मंजुल मणिहार॥2॥

वह मरुस्थल का है वह भाग।
जहाँ है खर-रवि-कर उत्ताकप।
बढ़ाती है बालुका-उपेत।
जहाँ की भूमि विविध संताप॥3॥

यह प्रकृति देश-काल-अनुकूल।
विधाता का है वह सुविधन।
समुन्नति-आनन परम प्रफुल्ल।
नहीं जिससे बन पाता म्लान॥4॥

वर परम कुटिल काल-संकेत।
इस सरणि का है जो है हीन।
बनाता रहता है जो सतत।
प्राणियों को बहु दीन मलीन॥5॥

यह नियति-कर-विरचित कमनीय।
उच्चतम है वह सत्सोपान।
चढ़े जिस पर संयम के साथ।
सकल भव करता है सम्मान॥6॥

वह महा अज्ञ विवेक-विहीन
कर-रचित है वह गत्ता गँभीर।
गि जिसमें होता है नष्ट।
विभव-गौरव का सबल शरीर॥7॥

एक है सुधा, दूसरा गरल।
प्रथम है धर्म, द्वितीय अधर्म।
उभय की हैं वृत्तिकयाँ विभिन्न।
कर्म है जीवन, मरण अकर्म॥8॥

(2)

शक्ति रहते न सकेंगे रोक।
विलोचन अवलोकन का काम।
नासिका ग्रहण कगी गंधा।
बनेगा श्रवण शब्द का धाम॥1॥

तुरत जायेगी रसना जान।
कौन-से रस का क्या है स्वाद।
न चूकेगा अवसर अवलोक।
कगा आनन वाद-विवाद॥2॥

त्वचा को बिना किये कुछ यत्न।
स्पर्श का हो जाता है ज्ञान।
किया करता है मन सब काल।
बहुत-सी बातों का अनुमान॥3॥

सलिल में तरल तरंग समान।
उठा करते हैं नाना भाव।
वहन करता रहता है चित्त।
निज विषय के चिन्तन का चाव॥4॥

चलेगी क्या न निराली चाल।
आत्मगौरव स्वाभाविक चाह।
निकालेगी न सुअवसर देख।
क्या सुमति अपनी अनुपम राह॥5॥

क्या कगी न मान की आन।
सदा निज विभुता का विस्तार।
क्या न डालेगी लिप्सा ललक।
समादर-कंठ में प्रमुद-हार॥6॥

विदित करने को विश्व-विभूति।
दिखाने को अद्भुत व्यापार।
लगा जो उर से शिर पर्यन्त।
टूट जायेगा क्या वह तार॥7॥

जिस समय तक है सुख-दुख-ज्ञान।
आत्मसत्ता में है अनुराग।
कर्ममय है जबतक संसार।
कर्म का कैसे होगा त्याग॥8॥

(3)

विलोचन अवलोकें छविपुंज।
मुग्ध हों भव-सौन्दर्य विलोक।
किन्तु हो दृष्टि नितान्त पुनीत।
सामने हो अनुभव-आलोक॥1॥

दिखाई पड़े कुवस्तु सुवस्तु।
विदूरित हों तम-तोम-विकार।
सुमति मानवता मुख अवलोक।
बने सद्भाव गले का हार॥2॥

हस्तगत हो वह आत्मिक शक्ति।
छिड़े वह अन्तस्तल का तार।
लोकहितमय हो जिसकी भीड़।
प्रेम-परिपूरित हो झंकार॥3॥

पाठ कर विश्व-बंधुता-मंत्र।
बने मानस कमनीय अतीव।
समझकर सर्वभूतहित मर्म।
सगे बन जायँ जगत के जीव॥4॥