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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ - ४

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प्यारे ही से बन सकते हैं।
पराये भी अपने प्यारे।
बचाना है अपने को तो।
और को पत्थर क्यों मा॥4॥

सँभाले, मुँह, करते रहकर।
जीभ की पूरी रखवाली।
जब बुरी गाली लगती है।
तब न दें औरों को गाली॥5॥

जगत में कौन पराया है।
कौन याँ नहीं हमारा है।
मान तो हम सबको देवें।
मान जो हमको प्यारा है॥6॥

क्यों किसी को कोई दुख दे।
क्यों किसी को कोई ताने।
क्यों न अपने जी जैसा ही।
दूसरों के जी को जाने॥7॥

कौन किसको सुख देता है।
किसी को कौन सताता है।
किये का ही फल मिलता है।
कर्म ही सुख-दुख-दाता है॥8॥

(4)

प्रति दिवस उदयाचल पर आ।
भव-दृगों से हो अवलोकित।
कीत्तिक दिनमणि-कर पाता है।
लोक को करके आलोकित॥1॥

सुधा को लिये सिंधु को मथ।
सुधाकर नभ पर आता है।
रात-भर बिहँस-बिहँस उसको।
धारातल पर बरसाता है॥2॥

तारकावलि तैयारी कर।
तिमिर से भिड़ती रहती है।
ज्योति देकर जगतीतल को।
प्रगति-धारा में बहती है॥3॥

वात है मंद-मंद चलता।
महँक से भरता रहता है।
पास आ कलिका कानों में।
विकचता बातें कहता है॥4॥

वारि से भर-भरकर वारिद।
सरस हो-हो रस देता है।
मुग्धता दिखा दिग्वधू की।
बलाएँ बहुधा लेता है॥5॥

व्योमतल में नभ-यान विहर।
विविध कौतुक दिखलाते हैं।
कीत्तिक विज्ञान-विधानों की।
विपुल कंठों से गाते हैं॥6॥

हिमाचल अचल कहाकर भी।
द्रवित हो रचता सोता है।
निर्झरों से झंकृत रहकर।
ध्वनित सरिध्वनि से होता है॥7॥

गगनचुम्बी मंदिर के कलश।
उच्च प्रासाद-पताकाएँ।
प्रचारित करती रहती हैं।
कला-कौशल गुण-गरिमाएँ॥8॥

महँकते हैं रस देते हैं।
हँस लुभाते ही रहते हैं।
फूल सब अपना मुँह खोले।
कौन-सी बातें कहते हैं॥9॥

काम में रत रह गाने गा।
खोजते फिरते हैं चारा।
कौन-सा भेद बताते हैं।
विहग-कुल निज कलरव द्वारा॥10॥

भ्रमर-गुंजन तितली-नर्त्तन।
हो रहा है किस तंत्री पर।
मत्त होती है मधुमक्खी।
कौन-सा मधुप्याला पीकर॥11॥

विपुल वन-उपवन के पादप।
ह परिधानों को पहने।
सजाये किसके सजते हैं।
फूल-फल के पाकर गहने॥12॥

महा उत्ताकल तरंगों पर।
विजय पोतों से पाता है।
मिल गये किसका बल गोपद।
सिंधु को मनुज बनाता है॥13॥

सत्यता से सब दिन किसकी।
सिध्दि के साथ निबहती है।
सफलता-ताला की कुद्बजी
हाथ में किसके रहती है॥14॥

सुशोभित है दिव की दिवता।
दिव्यतम उसकी सत्ता से।
विलसता है वसुंधरातल।
कर्म की कान्त महत्ता से॥15॥