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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ - ३

विपिन
(1)
शार्दूल-विक्रीडित

शोभाधाम ललाम मंजुरुत की नाना विहंगावली।
लीला-लोल लता-समूह बहुश: सत्पुष्प सुश्री बड़े।
पाये हैं किसने असंख्य विटपी स्वर्लोक-संभूत-से।
रम्योपान्त नितान्त कान्त महि में है कौन कान्तार-सा॥1॥

नाना मंजुल कुंज से विलसिता भृंगावली-भूषिता।
छायावान लता-वितान-वलिता पाथोज-पुंजावृत्ताक।
गुंजा-माल-अलंकृता तृणगता मुक्तावली-मंडिता।
है दूर्वादल-संकुला विपिन की श्यामायमाना मही॥2॥

वंशस्थ

तृणावली तारक-राजि व्योम है।
पतंग है दीधिकत पुष्पराशि का।
प्रशस्त कान्तार विशाल सिंधु है।
तरंग-माला तरु-पुंज-पंक्ति का।

शार्दूल-विक्रीडित

पेड़ों में वन की बड़ी विविधता उत्फुल्लता उच्चता।
पत्तों में फल में महा सरसता आमोदिनी मंजुता।
नाना पुष्प-समूह में विकचता सच्ची मनोहारिता।
पाते हैं कमनीयता मृदुलता कान्ता लता-पुंज में॥1॥

व्यापी मंजु हरीतिमा विटप की कादम्बिनी-सी लसी।
शाखा पल्लव-पूरिता विकसिता पुष्पावली-सज्जिता।
लेती है कर मुग्ध वारि-निधिक-सी हो ऊर्मिमालामयी।
नाना गुल्म-लतावती विपिन को नीलाम्बरा मेदिनी॥2॥

की है कानन मध्य सिध्दि जन ने प्यारी तप:साधना।
पूता है वन की महा गहनता स्वर्गीय सम्पत्तिक से।
व्यापी निर्जनता विराग-निरता एकान्त आधारिता।
होती है महनीय शान्ति-भरिता कान्तार-गंभीरता॥3॥

उल्लू का विकराल नाद बहुधा, शार्दूल की गर्जना।
देता है न किसे प्रकंपित बना चीत्कार मातंग का।
देखे हिंसक भीमकाय पशु की आतंककारी क्रिया।
सन्नाटा वन का विलोक किसको हृत्कंप होता नहीं॥4॥

नाना व्याल-विभीषिका विकटता भू कंटकाकीर्ण की।
हिंसा पाशव वृत्तिक हिंस्र पशु की चीत्कारमग्ना दिशा।
ज्वाला-भाल-निपीड़ता तरु-लता धामांधाकारावृता।
होती है भयपूरिता विपिन की कृत्या समा प्रक्रिया॥5॥

पा के दानव के समान वपुता एवं कदाकारता।
हो के चालित चंड वायु-गति से आतंक-मात्राक बढ़ा।
नाना काक उलूक आदि रव से हो प्रायश: पूरिता।
देती है वन को भयावह बना दुर्वीक्ष्य वृक्षावली॥6॥

वंशस्थ

बनी हुई मूर्ति विभीषिका।
वृकोदरा श्वापद-वृन्द-शासिता।
किसे नहीं है करती प्रकंपिता।
करालकाया वन की वसुंधरा।

शार्दूल-विक्रीडित

जो है हिंसकता-निकेत जिसमें है भीति-सत्ता भरी।
जो है भूरि विभीषिका-विचलिता उत्पात-आलोड़िता।
जो है कंटकिता नितान्त गहना आतंक-आपूरिता।
तो कैसे वन-मेदिनी, विकटता-आक्रान्त होगी नहीं॥1॥

गीत

(2)

है कौन विलसता सब दिन।
परिधन हरित-तम पहने।
हैं सबसे सुन्दर किसके।
कमनीय कुसुम के गहने॥1॥

हरिताभ मंजुतम अनुपम।
है किसका अंक निराला।
है पड़ी कंठ में किसके।
मरकत-मणि-मंजुल माला॥2॥

इतना अनुरंजित ऊषा।
कब किसको है कर पाती।
इतनी मुक्ता-मालाएँ।
रजनी है किसे पिन्हाती॥3॥

बहु प्रभावान प्रति वासर।
है किसे प्रभात बनाता।
किसको दिन-मणि निज कर से।
है स्वर्ण-मुकुट पहनाता॥4॥

हैं किसे ललिततम करती।
हिल-हिल अनंत लतिकाएँ।
किसमें विलसित रहती हैं।
खिल-खिल अगणित कलिकाएँ॥5॥

लेकर विहंगमों का दल।
है गीत मनोहर गाता।
निज कोटि-कोटि कंठों से।
है कलरव कौन सुनाता॥6॥

वारिधिक-समान संचालित।
किसको समीर है करता।
किसके सौरभ को ले-ले।
वह है दिगन्त में भरता॥7॥

कर लाभ सुमनता किसकी।
हैं सरस सुमन से भरते।
लेकर असंख्य तरु-फल-दल।
किसका पूजन हैं करते॥8॥

नित प्रकृति की छटा किसमें।
नर्त्तन करती मिलती है।
मधु की मधुता किसको पा।
छगुनी छवि से खिलती है॥9॥

नयनाभिराम बहु मोहक।
आमोदक परम मनोरम।
वसुधा में कौन दिखाया।
बन के समान मंजुलतम॥10॥