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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ - ४

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गीत
(3)

कहाँ हरित पट प्रकृति-गात का है बहु कान्त दिखाता।
कहाँ थिरकती हरियाली का घूँघट है खुल पाता।
कहाँ उठा शिर विटपावलि हैं नभ से बातें करती।
कहाँ माँग अपनी लतिकाएँ मोती से हैं भरती॥1॥

कोटि-कोटि कीचक हैं अपनी मुरली कहाँ बजाते।
कहाँ विविध गायक तरु गा-गा हैं बहु गीत सुनाते।
ले बहु सूखे फल समीर है कहाँ सुवाद्य बजाता।
मोरों का दल कहाँ मंजुतम नर्त्तन है कर पाता॥2॥

ऐसी कुंजें कहाँ जहाँ दृग कुंठित हैं हो जाते।
जिसकी छाया को सहस्र-कर कभी नहीं छू पाते।
कहाँ विलसती हरियाली में कुसुमावलि है वैसी।
नभ-नीलिमा तारकावलि में छवि मिलती है जैसी॥3॥

कहाँ उठे हैं विपुल महातरु श्यामल महि में ऐसे।
उठती हैं उत्ताकल तरंगें तोयधिक-तन में जैसे।
धानी साड़ी धारा-सुन्दरी को है कौन पिन्हाती।
कोसों तक तृणराजि कहाँ पर है राजती दिखाती॥4॥

विपुल कुसुम-कुल के गुच्छों से जो मंजुल हैं बनते।
कहाँ बेलियों के विभवों से हैं वितान बहु तनते।
कहाँ वनश्री की लेती हैं पुलकित बनी बलाएँ।
नीली लाल हरित दलवाली लाखों ललित लताएँ॥5॥

रंजित बनती हैं रजनी की जिनसे तामस घड़ियाँ।
दीपक-जैसी कहाँ जगमगाती मिलती हैं जड़ियाँ।
लता-वेलि-तरु-चय पत्तों में हैं प्रसून-से खिलते।
पावस में अनंत जुगनू हैं कहाँ चमकते मिलते॥6॥

श्याम रंग में रँगे झूमते बहु क्रीड़ाएँ करते।
कहाँ करोड़ों भौं हैं सब ओर भाँवरें भरते।
रंग-बिरंगी बड़ी छबीली कुसुम-मंजुरस-माती।
कहाँ असंख्य तितलियाँ फिरती हैं रंगतें दिखाती॥7॥

चित्रा-विचित्र परों से अपने विचित्रता फैलाते।
कभी मेदिनी, कभी डालियों पर बैठे दिखलाते।
हो कलोल-रत कलित कंठ से गीत मनोहर गाते।
झुंड बाँधाकर कहाँ करोड़ों खग हैं आते-जाते॥8॥

कभी अति चपल मृदुल-काय शावक-समूह से घिरते।
कभी चौंकते, कभी उछलते, कभी कूदते फिरते।
भोले-भाले भाव दृगों में भर कोमल तृण चरते।
कहाँ यूथ-से-यूथ मृग मिले भूरि छलाँगें भरते॥9॥

उठती हैं मानव-मानस में विविध विनोद-तरंगें।
तृप्ति-लाभ करती हैं कितनी उर में उठी उमंगें।
दृष्टि मिले का फल पाते हैं बहु विमुग्ध दृग हो के।
बनती है अनुभूति सहचरी विपिन-विभूति विलोके॥10॥

उद्यान
(1)

गीत

हरित तृणराजि-विराजित भूमि।
बनी रहती है बहु छबि-धाम।
विहँस जिसपर प्रति दिवस प्रभात।
बरस जाता है मुक्ता-दाम॥1॥

पहन कमनीय कुसुम का हार।
पवन से करती है कल केलि।
उड़े मंजुल दल-पुंज-दुकूल।
विलसती है अलबेली बेलि॥2॥

क्यारियों का पाकर प्रिय अंक।
आप ही अपनी छवि पर भूल।
लुटाकर सौरभ का संभार।
खिले हैं सुन्दर-सुन्दर फूल॥3॥

छँटी मेहँदी के छोटे पेड़।
लगे रविशों के दोनों ओर।
मिले घन-जैसा श्याम शरीर।
नचाते हैं जन-मानस मोर॥4॥

खोल मुँह हँसता उनको देख।
विलोके उनका तन सुकुमार।
प्यारे करता है हो बहु मुग्ध।
दिवाकर कर कमनीय पसार॥5॥

खड़े हैं पंक्ति बाँधा तरु-वृन्द।
ललित दल से बन बहु अभिराम।
लोचनों को लेते हैं मोल।
डालियों के फल-फूल ललाम॥6॥

प्रकृति-कर से बन कोमल-कान्त।
लताओं का अति ललित वितान।
बुलाता है सब काल समीप।
कलित कुंजों का छाया-दान॥7॥

लाल दलवाले लघुतम पेड़।
लालिमा से बन मंजु महान।
दृगों को कर देते हैं मत्त।
छलकते छवि-प्यारेले कर पान॥8॥

बहुत बल खाती कर कल नाद।
नालियाँ बहती हैं जिस काल।
रसिक मानव-मानस के मध्य।
सरस बन रस देती हैं ढाल॥9॥

कहीं मधु पीकर हो मदमत्त।
अलि-अवलि करती है गुंजार।
कहीं पर दिखलाती है नृत्य।
रँगीली तितली कर शृंगार॥10॥

पढ़ाता है प्रिय रुचि का पाठ।
कहीं पर पारावत हो प्रीत।
कहीं पर गाता है कलकंठ।
प्रकृति-छवि का उन्मादक गीत॥11॥

सुने पुलकित बनता है चित्त।
पपीहा की उन्मत्ता पुकार।
कहीं पर स्वर भरता है मोर।
छेड़कर उर-तंत्री के तार॥12॥

कहीं क्षिति बनती है छविमान।
लाभ कर विलसे थल-अरविन्द।
कहीं दिखलाते हैं दे मोद।
तरु-निचय पर बैठे शुक-वृन्द॥13॥

मंजु गति से आ मंद समीर।
क्यारियों में कुंजों में घूम।
छबीली लतिकाओं को छेड़।
कुसुम-कुल को लेता है चूम॥14॥

कगा किसको नहीं विमुग्ध।
सरसता-वलित ललिततम ओक।
न होगा विकसित मानस कौन।
लसित कुसुमित उद्यान विलोक॥15॥