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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्दश सर्ग / पृष्ठ - १

सत्य का स्वरूप
विभु-विभूति
(1)

भरा है नभतल में भरपूर।
कौन-से श्यामल तन का रंग।
मिले किसके कर का अवलंब।
अधर में उड़े असंख्य पतंग॥1॥

किस अलौकिक विभु का बन भव्य।
आरती करती है सब काल।
जगमगाती जगतीतल-ज्योति।
गगन में अगिणत दीपक बाल॥2॥

किसे अर्पित होता है नित्य।
उषा के अन्तर का अनुराग।
चाँदनी खिलती मिलती है।
लाभ कर किसका दिव्य सुहाग॥3॥

बताता है किसको रसधाम।
बरस, घन, नभ में हो समवेत।
किया करता है उन्नत मेरु।
उच्चता का किसका संकेत॥4॥

किसे देते हैं पादप-वृन्द।
बहु नमित हो फल का उपहार।
पिन्हाती हैं लतिकाएँ रीझ।
किसे कल कुसुमावलि का हार॥5॥

किसे नदियाँ कर कल-कल नाद।
सुनाती हैं अति सुन्दर तान।
याद कर किसको विपुल विहंग।
किया करते हैं मंजुल गान॥6॥

उठा करती है उदधिक-तरंग।
चूमने को किसका पग पूत।
वितरता है सौरभ-संभार।
मलय-मारुत बन किसका दूत॥7॥

तिमिर में है जगती भव-ज्योति।
भाव में है सच्ची अनुभूति।
विलोकें क्यों न दृगों को खोल।
कहाँ है विभु की नहीं विभूति॥8॥

सनातन धर्म
छप्पय
(2)

वह लोकोत्तर सत्य नियति का जो है धाता।
भव की अनुभव-पूत भक्ति का जो है दाता।
वर विवेक-विज्ञान-नयन का जो है तारा।
पाकर जिसकी ज्योति जगमगाया जग सारा।
हैं भुक्ति-मुक्ति जिसकी प्रिया शुचितम जिसका कर्म है।
सब काल एकरस जो रहा वही सनातन धर्म है॥1॥

वंदनीयतम वेदमन्त्रा उसके हैं ज्ञापक।
सकलागम हैं परम अगम महिमा के मापक।
उसकी विभुता विविध उपनिषद हैं बतलाते।
सा नियमन नियम स्मृति सकल हैं सिखलाते।
उसके आदर्श पुराण के कथानकों में हैं कथित।
भारत-से अनुपम ग्रंथ में उसकी गरिमा है ग्रथित॥2॥

मानवता का मूल सदाशयता का मं र।
सदाचार कमनीय स्वर्ग का पूज्य पुरंदर।
भव-सभ्यता-सुमेरु दिव्यता का कल केतन।
लोक-शान्ति का सेतु भव्य भावना-निकेतन।
नायक है सकल सुनीति का, नैतिक बल का है जनक।
है वह पारस जिसको परस लोहा बनता है कनक॥3॥

सर्वभूत-हित-महामन्त्रा का सबल प्रचारक।
सदय हृदय से एक-एक जन का उपकारक।
सत्य भाव से विश्व-बंधुता का अनुरागी।
सकल-सिध्दि-सर्वस्व सर्वगत सच्चा त्यागी।
उसकी विचार-धारा धारा के धार्मों में है बही।
सब सार्वभौम सिध्दान्त का आदि प्रवर्तक है वही॥4॥

बुध्ददेव के धर्मभाव में वही समाया।
उसको ही जरदश्त-हृदय में विलसित पाया।
है ईसा की दिव्य उक्ति का वही विधाता।
वही मुहम्मद की विभूति का है निर्माता।
अवनीतल का सारा तिमिर उसके टाले ही टला।
वह है वह पलना सकल-मत-शिशु जिस पलने में पला॥5॥

पशु मानव हो गये लाभ कर दिव्य सहारा।
पावन बने अनेक अपावन जिसके द्वारा।
जो दे-दे बहु कष्ट लोक-कंटक कहलाया।
उसने कुसुम-समान उसे भी रुचिर बनाया।
सिदियन-सी कितनी जातियाँ चारु रंगतों में ढलीं।
पाकर उसको सुधारीं सधीरें सफल बनीं फूलीं-फलीं॥6॥

उसके खोले खुले बड़े पेचीले ताले।
उसने सुलझा दिये, गये जो उलझन डाले।
खुली कौन-सी ग्रंथि नहीं उसके कर द्वारा।
दिया उसी ने तोड़ विश्व का बन्धान सारा।
देश काल को देख कब बना नहीं वह दिव्यतर।
कब उसने गति बदली नहीं समय-प्रगति अवलोककर॥7॥

है उसमें वह भूति जो असुर को सुर कर दे।
है उसमें वह शान्ति शान्ति जो भव में भर दे।
है उसमें वह शक्ति पतित को पूत बनाये।
है उसमें वह कान्ति रजकणों को चमकाये।
जिससे अमनुजता असमता सब दिन रहती है डरी।
उसकी उदारतम वृत्तिक में वह उदारता है भरीे॥8॥

अचल हिमाचल उठा शीश गुणगण गाता है।
पावनता सुरसरित का सलिल बतलाता है।
गाकर गौरव-गीत विबुध बल-बल जाते हैं।
अवनीतल में कीत्तिक-पताके लहराते हैं।
उसकी संस्कृति के सूत्र से सुख-वितान जग में ताना।
उसके बल से संसार में भारत-मुख उज्ज्वल बना॥9॥

ऐसा परम पुनीत सनातन धर्म निराला।
दूर क सब तिमिर दिखा बहु दिव्य उजाला।
भ्रम-प्रमाद-वश कभी न वह अनुदार कहाये।
सब उससे सुर-तरु-समान वांछित फल पाये।
जल पवन रवि-किरण-सम उसे।
मनुज-मात्रा अपना कहे।
सा वसुधातल में सदा।
शान्ति-सुधा-धारा बहे॥10॥

भाव-विभूति
(3)

बहुत सूखे हृदयों को सींच।
सरसता कर असरस को दान।
दया है उस द्रविता का नाम।
बरस जाये जो जलद-समान॥1॥

सुन जिसे श्रवण हो सुधा-सिक्त।
सुनाये हृत्तान्त्री वह राग।
क जो जन-रंजन सब काल।
वही है आरंजित अनुराग॥2॥