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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - ११

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(79)

खुली आँखें

किसी में मकर मिला फिरता।
किसी में भूख भरी पाई।
किसी में चोट तड़पती थी।
किसी में साँसत दिखलाई॥1॥

किसी में लगन की लहर थी।
किसी में था लानत-लेखा।
आँसुओं की बूँदों को जब।
खोलकर आँखों को देखा॥2॥

(80)

आँसू आना

पतित तो पैसे वाले हैं।
पेट पचके जो पाते हैं।
तब कहाँ भलमनसाहत है।
जो नहीं भूखे भाते हैं॥1॥

लोग तो पड़े भूल में हैं।
भले कैसे कहलाते हैं।
देख दुखिया-दुख आँखों में।
जो नहीं आँसू आते हैं॥2॥

(81)

आँसू गिरना

किसलिए कढ़ें कलेजे से।
बला से क्यों न घिरें आँसू।
कभी दुख-जल-लहरों में आ।
न तो उभरें न तिरें आँसू॥1॥

किसी की आँखों में आकर।
फिरायें क्यों न फिरें आँसू।
देश की गिरी दशा देखे।
गिराये जो न गिरें आँसू॥2॥

(82)

आँसुओं का सागर

अंक में रुचि के भरता है।
मोद मुक्ता-छवि से छहरा।
दिव्यतम भव को करता है।
कीत्तिक का कान्त केतु फहरा॥1॥

भाव पर सरस तरंगों से।
रंग दे देता है गहरा।
प्रेम-परिपूरित आँखों में।
आँसुओं का सागर लहरा॥2॥

(83)

शार्दूल-विक्रीडित

थोड़ा ज्ञान हुए, महान बनना, सीधो नहीं बोलना।
मान्यों का करना न मान, सुनना बातें न धीमान की।
बोना बीज प्रपंच का सदन में, बातें बनाना वृथा।
लेना काम न बुध्दि से खल मिले, है बुध्दिमत्तक नहीं॥1॥

देखे दुर्गति देश की, विवशता उत्पीड़िता जाति की।
देखे क्रन्दन क्षुधादग्धा जन का, संताप संत्रास्त का।
देखे धवंस प्रशंसनीय कुल का, निर्वंश सद्वंश का।
जाते हैं जल क्यों नहीं, सजल हो पाते नहीं नेत्र जो॥2॥

तो है व्यर्थ अपूर्व वाक्य-रचना ओजस्विनी वक्तृता।
तो है व्यर्थ गभीर गर्जन, बुरी है दीर्घ आयोजना।
तो है व्यर्थ समस्त व्यंग्य, गहरी आलोचना लोक की।
सेवा हो सकती अनन्य मन से जो मातृ-भू की नहीं॥3॥

है लक्षाधिकप की कमी न, फिर भी कंगाल हैं कोटिश:।
होते हैं व्यय व्यर्थ; किन्तु बहुश: हैं पीच पाते नहीं।
होती है बहु दुर्दशा, पर खड़े होते नहीं रोंगटे।
देती है व्यथिता बना न मति को क्यों भारती-भू-व्यथा॥4॥

भीता है वह सत्प्रवृत्तिक जिससे भू को मिली भव्यता।
त्यक्ता है वह शान्ति जो जगत है क्रान्ति-विधवंसिनी।
देखे दुर्गति नीति की मनुजता अत्यन्त है चिन्तिता।
यों हो मर्दित भारतीय सुत से क्यों भारती-भूतियाँ॥5॥

होवे पावनतारता सुचरिता सद्वृत्तिक से पूरिता।
कान्ता कीत्तिक-कलाप से विलसिता लोकोपकारांकिता।
पा सत्यामृत का प्रवाह सरसा होती रहे सर्वदा।
सद्भावाचल-शृंग से निपतिता हो भारती-भू नहीं॥6॥

पाके श्री सुत सर्वदा सुखित हो होवें यशस्वी सुधी।
ऐसी उत्ताम नीति हो, बन सके जो प्रीति-संवर्ध्दिनी।
होवे मानवता-प्रवृत्तिक प्रबला हो लालसा उज्ज्वला।
होवे भारत-भू भला, उतरती दीखे सदा आरती॥7॥

वेदों से भववंद्य ग्रंथ किसकी सद्वृध्दि के स्वत्व हैं।
पैदा हैं किसने किये सुअन वे जो सत्यसर्वस्व हैं।
ऊँचा है कहता हिमाद्रि किसको सर्वोच्चता को दिखा।
पाके भारत-सा सपूत भव में है भाग्यमाना मही॥8॥

हो पाये-अवतार भार हरने की दृष्टि से जी जहाँ।
भाराक्रान्त जिसे विलोक विधिक भी होते महाभीत थे।
तो होगा बहुदग्धा क्यों न उर, क्यों होगी न पीड़ा बड़ी।
जो भारत के भारभूत नर से हो भारभूता धारा॥9॥

क्यों होगा उसका उभार उसमें होगी न क्यों भीरुता।
होते भी सुविभूतियाँ न वह क्यों होगी व्यथा से भरी।
दैवी भूति-निकेत दिव्यसुर-से प्राणी कहाँ हैं हुए।
भीता भारत-जात भार-भय से क्यों भारती-भूमि हो॥10॥

है औदार्यमयी समस्त भव के सद्भाव से है भरी।
होती है मुदिता विलोक जगती लीलावती मूर्तियाँ।
सारी मोहक मंजु सृष्टि-ममता है मोह लेती उसे।
संसिक्ता रस से महानहृदया है विश्व की बंधुता॥11॥

तो हत्या करतीं कभी न इतनी पापीयसी वृत्तिकयाँ।
हो पाई जितनी जिन्हें सुन किसे होती नहीं है व्यथा।
तो धार्मान्धा नहीं कृतान्त बनते कृत्या कहाती न धीरे।
प्राणी निष्ठुर चित्तमध्य बसती जो विश्व की बन्धुता॥12॥

वे दानव हैं जो अधर्म करते हैं धर्म की ओट में।
वे हैं पामर ढूँढ़ते गरल हैं जो पुण्य-पाथोधिक में।
वे सद्ग्रंथ कदापि हैं न जिनमें है ईदृशी पंक्तियाँ।
जो है धर्म-विहीन, विश्व-ममता के मर्म से वंचिता॥13॥

देते हैं प्रिय ज्योति मंद हँसके हैं मोह लेते उसे।
हैं ता-सम नेत्र के, वसुमती के 'इन्दु' आनन्द हैं।
वे आके रस जो नहीं बरसते, होती रसा क्यों रसा।
तो होती वसुधा न सिक्त, कर में होती सुधा जो नहीं॥14॥

तो होता तम-भरा सर्व महि में होती न दृश्यावली।
तो होती मलिना दिशा न मिलती छाई कहीं भी छटा।
हो जाती मरु-मेदिनी, नयनता पाती महाअंधता।
देते जो न दिनेश दिव्य बनके भू-भूमि को दिव्यता॥15॥