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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - ७

(39)

आँख की लालिमा

पूत सम्बन्धा दिव्य मन्दिर में।
लाग की आग आ लगाये क्यों।
प्रेम की अति ललाम लाली को।
क्रोधा की लालिमा जलाये क्यों॥1॥

रंग अनुराग का अगर बिगड़ा।
अंधता ही अगर लुभाती है।
था भला आँख फूट जाती जो।
लालिमा कालिमा कहाती है॥2॥

(40)

आँख दिखलाना

बेतुकी बात बेतुके मुँह की।
है किसी से नहीं सुनी जाती।
क्यों न जी जायगा बिगड़ कोई।
जो छिनी जाय जन्म की थाती॥1॥

जाति की दृष्टि घिन-भरी ओछी।
जाति से है सही नहीं जाती।
आँख जो देखना पड़ा है तो।
क्यों नहीं आँख आँख दिखलाती॥2॥

(41)

लाल-लाल आँखें

भाव ही भाव का विधायक है।
किसलिए हम कहीं दलक देखें।
चित्रा क्यों आँकते रहे अरुचिर।
क्यों नहीं मंजु छवि छलक देखें॥1॥

क्यों विलोकें विरोधिकनी बातें।
क्यों न मनमोहिनी झलक देखें।
क्यों नहीं लाल-लाल आँखों में।
हम किसी लाल की ललक देखें॥2॥

(42)

आँसू-भरी आँखें

हैं दिलों को नरम बना देती।
मैल मन का कभी मिलीं धोती।
हैं किसी चित्त में जगह करती।
हैं उरों में भरी कसर खोती॥1॥

आग जी की कहीं बुझाती हैं।
हैं कहीं बीज प्यारे का बोती।
आँसुओं से भरी हुई आँखें।
हैं कहीं पर बखेरती मोती॥2॥

(43)

प्यारे और आँख

जो किसी से नहीं भ हैं हम।
क्यों न हित का उभार तो होगा।
चल रहा ठीक-ठीक बेड़ा है।
किसलिए वह न पार तो होगा॥1॥

है कसर जो भरी नहीं जी में।
क्यों न संसार यार तो होगा।
प्यारे से हैं अगर भरी आँखें।
क्यों न दिल में दुलार तो होगा॥2॥

(44)

आँखों के डो

रंग रखना पड़ा इसी से ही।
हैं किसी रंग से न को ये।
है लसी लाल लालिमा जिसमें।
हैं उसी रंग-बीच बो ये॥1॥

लोक-अनुराग के रुचिर सर के।
हैं बड़े ही ललित हिलो ये।
हैं लकीरें ललामता-कर की।
आँख के लाल-लाल डो ये॥2॥

(45)

कान्त छवि के विकास अनुपम हैं।
या किसी राग के बसे हैं।
लालसा के सरस नमूने हैं।
या लगन के ललाम घे हैं॥1॥

या रुचिर रस सुचारु कर विचरित।
भाव के कान्ततम फ हैं।
आँख के रंग में रँगे डो।
कौन-से चित्रा के चिते हैं॥2॥

(46)

आँख की सितता

है हँसी-सी विकासवाली वह।
है मुकुर-सी मनोज्ञ आभामय।
है दिखा दिव्यता दमक जाती।
है ललिततम ललामता-आलय॥1॥

है सहज भाव के सहित उसमें।
सात्तिवकी वृत्तिक की अपरिमितता।
है सिता-सी मनोहरा सरसा।
है सुधा-सिक्त आँख की सितता॥2॥

(47)

काली पुतली

कालिमामयी कहें उसको।
बतायें उसे गरलवाली।
न सुन्दरता होवे उसमें।
ऐंठ लेवे कोई लाली॥1॥

किन्तु उससे ही मिलती है।
लोक-आँखों की उँजियाली।
जगत में ऍंधिकयाला होता।
न होती जो पुतली काली॥2॥

(48)

रँगी आँखें

जगमगाती न किसलिए मिलतीं।
ज्योति के जाल से जगी आँखें।
देखने को ललामता भव की।
क्यों ललककर न हों लगी आँखें॥1॥

भूलतीं क्यों भलाइयाँ विभु की।
प्रेम के पाग में पगी आँखें।
क्यों नहीं श्यामता-रता होतीं।
श्याम के रंग में रँगी आँखें॥2॥