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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - ८

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(49)

आँख की लालिमा

उषा-सी लोक-रंजिनी बन।
साथ लाती है उँजियाली।
अलौकिक कान्ति-कला दिखला।
दूर करती है अंधियारा ।

बना करती है बन-ठन के।
छलकती छविवाली प्यारेली।
लालिमा विलसित आँखों की।
मुँहों की रखती है लाली॥2॥

(50)

लसती लालिमा

सुखों को सुखित बनाती है।
ललकते उर में है बसती।
सदा अनुराग-रंग दिखला।
प्यारेवालों को है कसती॥1॥

कभी खिलती मिल जाती है।
कभी दिखलाती है हँसती।
कालिमा को कलपाती है।
लालिमा आँखों में लसती॥2॥

(51)

आँख का पानी

मुँह दिखाते बने न औरों को।
और मुँह की सदा पड़े खानी।
पत उतर जाय, हो हँसी, ऐसी
हो किसी से कभी न नादानी॥1॥
बेबसी, बेकसी, खुले खुल ले।
बेहयाई न जाय पहचानी।
बह सके तो घड़ों बहे आँसू।
पर न गिर जाय आँख का पानी॥2॥

(52)

लजीली आँख

हो सकी जब कि लाल-पीली तू।
तब कहें क्योंकि तू रसीली है।
जब कटीली कहा गया तुझको।
तब कहें क्यों कि तू छबीली है॥1॥
फबतियाँ लोग जब लगे लेने।
तब कहें क्योंकि तू फबीली है।
जब नहीं लाज रख सकी अपनी।
तब कहाँ आँख तू लजीली है॥2॥

(53)

अपने दुखड़े

हम बलाएँ लिया करें उनकी।
और हम पर बलाएँ वे लाएँ।
है यही ठीक तो कहें किससे।
क्या करें चैन किस तरह पाएँ॥1॥

किस तरह रंग में रँगे उनको।
आह को कौन ढंग सिखलाएँ।
जो पसीजे न आँसुओं से वे।
क्यों कलेजा निकाल दिखलाएँ॥2॥

(54)

आँसू

साँसतें करके औरों की।
साँसतें सहते हैं आँसू।
अगर कुछ असर नहीं रखते।
किसलिए बहते हैं आँसू॥1॥

क्यों नहीं उसके सब दुखड़े।
किसी से कहते हैं आँसू।
कलेजा मलने ही से तो।
निकलते रहते हैं आँसू॥2॥

(55)

आँसू की बूँद

नरम करती है जो मन को।
तो भलाई कर पाती है।
पर गरम बन करके वह क्यों।
किसी का भरम गँवाती है॥1॥

ठीक करती रहती है जो।
कहीं की आग बुझाती है।
बूँद आँसू की पानी हो।
कहीं क्यों आग लगाती है॥2॥

(56)

टपकते आँसू

रंग में औरों के दुख के।
कब नहीं रँगते हैं आँसू।
भला औरों का करने को।
सदैव उमगते हैं आँसू॥1॥

पास रहकर आहें सुन-सुन।
प्रेम में पगते हैं आँसू।
बढ़ गये टपक फफोलों की।
टपकने लगते हैं आँसू॥2॥

(57)

आँसू

दूसरों का दुख औरों से।
कौन कातर बन कह पाया।
पास सा पीड़ित जन के।
तरस खा-खाकर रह पाया॥1॥

समय की सभी साँसतों को।
कौन साहस कर सह पाया
जगत-दुख की धाराओं में।
कौन आँसू-सा बह पाया॥2॥

(58)

आँख का रोना

सामने दुख-रवि को देखे।
कब नहीं बन पाई कोई।
देख करके आहें भरते।
सभी नींदें किसने खोईं॥1॥
न जाने कितनी रातों में।
वे नहीं सुख से हैं सोई।
कौन रोया इतना, जितनी।
आजतक आँखें हैं रोई॥2॥