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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचम सर्ग / पृष्ठ - ४

है उत्ताकल तरंग में विलसती उद्दीप्त शृंगावली।
किंवा हैं जल-केलि-लग्न जल में ज्योतिष्क आकाश के।
किंवा हीरक-मालिका उदधिक में हैं अर्बुदों शोभिता।
किंवा हैं हिम के समूह बहुश: पाथोधिक में तैरते॥6॥

जैसे हैं तमपुंज भूरि भरते पाथोधिक के अंक में।
वैसे ही बहु दिव्य मीन विधिक ने अंभोधिक को हैं दिये।
आये मूर्तिमती मसी सम निशा घोरांधाकारावृता।
विद्युद्दीप-समान है दमकती वारीश-मत्स्यावली॥7॥

ऊषा-से अनुराग-राग-लसिता शोभा मनोरंजिनी।
स्वर्णाभा रवि के सहस्र कर से राका निशा से सिता।
भू से भूरि विभूति पूत विधु से सच्ची सुधा-सिक्ता।
पाता है रस-धाम वारि-धार से वारीश-मुक्तावली॥8॥

आये घोर विभावरी उदधिक में तेजस्विता है भरी।
या आलोक-निकेत मीन-कुल हैं कल्लोल में डोलते।
किंवा मंथन से पयोधिक-पय के विद्युद्विभा है जगी।
या व्यापी वडवाग्नि-दीप्ति-बल से दीपावली है बली॥9॥

नीले व्योम-समान है विलसता, है मोहता कान्त हो।
है आर्वत-समूह से थिरकता, है नाचता मत्त हो।
है पाता रवि से अलौकिक विभा, राकेश से दिव्यता।
है शोभामय सिंधु की सलिलता लावण्यलीलामयी॥10॥

होती है गुरु गर्जनाति-विकटा विद्युन्निपाताधिकका।
देखे तुंग तरंग-भंग भरती है भीति सर्वांग में।
होते हैं बहु पोत भग्न पल में आर्वत गर्त में।
भू में भूरि विभीषिका भरित है अंभोधिक अंभोधिक-सा॥11॥

है सर्वाधिकक वारि-लाभ करता पाथोधिक पर्जन्य से।
सारा तोय-समूह सर्व नदियाँ देतीं उसे सर्वदा।
तो भी है वह अल्प भी न बढ़ता, सीमा नहीं त्यागता।
पाते हैं किसमें रसाधिकपति-सी गंभीरता धीरेरता॥12॥

पानी है रखता, गँभीर रहता, है धीरेरता से भरा।
जाती पास नहीं कदापि कटुता अस्निग्धता क्षुद्रता।
देखी नीरसता कभी न उसमें, पाई नहीं शुष्कता।
है मर्यादित कौन नीरनिधिक-सा संसार में दूसरा॥13॥


पाई श्री हरि ने, तुरंग रवि ने, मातंग देवेन्द्र ने।
सा उत्ताम रत्न कल्पतरु से वृन्दारकों ने लिये।
देखो मन्थन में अगाधा निधिक के क्या दानवों को मिला।
होती है वर बुध्दि ही जगत में सर्वार्थ की साधिकका॥14॥

टाली भीति नृलोक की, गरलता पाथोधिक की दूर की।
थोड़ा लेकर वक्र अंश शशि का राकेशता दी उसे।
क्या पाया शिव ने सिवा गरल के दे दी सुरों को सुधा।
होते हैं महनीय कीत्तिक महि में माहात्म्य की मूर्तियाँ॥15॥

नाना क्रूर प्रचंड जन्तु कुल के उत्पीडनोत्पात से।
आता है बहु झाग सिंधु-मुख से क्या क्षुब्धाता के बढे।
किंवा सात्तिवक भाव क्रुध्द उर से उत्क्षिप्त है हो रहा।
होता फेनिल है समुद्र बहुधा या शेष फूत्कार से॥16॥

बारंबार सुना विकम्पिकरी अत्युत्कटा गर्जना।
नाना दृश्य दिखा-दिखा प्रलय के आर्वत-माला मिले।
होती है विकराल मूर्ति निधिक की अत्यन्त त्राकसप्रसू।
हो आन्दोलित चंड वायुबल से, कल्लोल से लोल हो॥17॥

छोटे हैं बनते विशाल, लघुता पाते महाद्वीप हैं।
डूबे देश कई, बनी मरु मही भू शस्य से श्यामला।
कैसी है यह नीति सिंधु! तुममें क्या है महत्ता नहीं।
होते हैं जल-मग्न वे नगर जो थे स्वर्र्ग-जैसे लसे॥18॥

खाते हैं लघु को बड़े रिपु बने हैं निर्बलों के बली।
नाना आश्रित व्यर्थ कष्ट कितने हैं भोगते सर्वदा।
हो ऐसे ममता-विहीन निधिक क्यों हो के महाविक्रमी।
सा जंतु-समूह मत्स्य-कुल के हो जन्मदाता तुम्हीं॥19॥

तो क्या हैं गिरि-तुल्य तुंग लहरें क्या है महागर्जना।
है रत्नाकरतातितुच्छ विभुता है व्यर्थ आर्वत की।
तो है हेय अगाधाता सरसता गंभीरता सिंधु की।
कष्टों से बहु आत्ता मत्स्य-कुल जो है त्राकण पाता नहीं॥20॥

पोतों को कर मग्न भग्न कब है होती समुद्विग्नता।
लाखों का कर प्राण-नाश उसको रोमांच होता नहीं।
लाती है अवसन्नता न उसमें संहार-दृश्यावली।
जैसा निर्दयता-निकेत निधिक है, है वज्र वैसा कहाँ॥21॥

हो सम्मानित भव्य भाव प्रतिभू हो भूतियों से भरा।
पापों का फल पा सका सब सदा दुर्वृत्तिकयाँ हैं बुरी।
सा रत्न छिने, विलोड़ित हुआ, है दग्धा होता महा।
पी डाला मुनि ने, तिरस्कृत बना, पाथोधिक बाँधा गया॥22॥

कैसे मान सकें तुझे सरस, तू संताप-सन्देह है।
जो तू है पवि-सा, तुझे तरलता-सर्वस्व कैसे कहे।
हों ऊँची उठती, परन्तु निधिक! हैं तेरी तरंगें बुरी।
होते हैं बहु पोत भग्न जिनसे, है मग्न होती तरी॥23॥

हैं नाना विकराल जन्तु उसमें, आपत्तिकयाँ हैं भरी।
है संहारक, मूर्तिमन्त यम है, आतंक का केन्द्र है।
तो भी है यह बात सत्य भव का कोई यशस्वी सुधीरे।
पारावार अपार दिव्य गुण का है पार पाता नहीं॥24॥

होती है विभुता-विभूति विदिता सद्रत्न-माला मिले।
देती है बतला सदैव गुरुता गंभीरता गर्जना।
गाती है गुण-मालिका सरव हो सारी तरंगावली।
राका रम्य निशा सिता जलधिक को र्सत्कीत्तिक की मूर्ति है॥25॥