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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचम सर्ग / पृष्ठ - ३

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सागर की सागरता
(5)

फूल पत्तो जिससे पाये।
मिली जिससे मंजुल छाया।
मधुरता से विमुग्ध हो-हो।
मधुरतम फल जिसका खाया॥1॥

जो सहज अनुरंजनता से।
नयन-रंजन करता आया।
काट उस ह-भ तरु को।
जन-दृगों में कब जल आया॥2॥

धारातल-अंक में विलसती।
लता कल कोमल दलवाली।
कलित कुसुमावलि से जिसकी।
सुछवि मुख की रहती लाली॥3॥

वहन करके सौरभ जिसका।
सौरभित था मारुत होता।
कुचलकर उसे राह चलते।
क्या कभी जन-मन है रोता॥4॥

किसी सुन्दर तरु पर बैठी।
निरखता निखरी हरियाली।
छटा अवलोक प्रसूनों की।
मत्तता कर की सुन ताली॥5॥

मुग्ध हो परम मधुर स्वर से।
गीत जो अपने गाता है।
वेधाकर उस निरीह खग को।
मनुज-मन क्या बिंधा पाता है॥6॥

'सहज अलबेलापन' छवि लख।
जाल में जिसकी फँसता है।
बड़ा ही अनुपम भोलापन।
ऑंख में जिसकी बसता है॥7॥

घास खा, वन में रह, जो मृग।
बिताता है अपना जीवन।
बेधाकर उसको बाणों से।
क्या कलपता है मानव-मन॥8॥

फूल-जैसे लाखों बालक।
पाँव से उसने मसले हैं।
लुट गयी अगणित ललनाएँ।
कभी जो तेवर बदले हैं॥9॥

लोभ की लहरों में उसकी।
करोड़ों कलप-कलप डूबे।
न बेड़ा पार हुआ उनका।
भले थे जिनके मनसूबे॥10॥

लहू की प्यासे न बुझ पाई।
बीतती जाती हैं सदियाँ।
उतरते ही जाते हैं सिर।
रुधिकर की बहती हैं नदियाँ॥11॥

आज तक सके न उतने बस।
उजाडे ग़ये सदन जितने।
सकेगा समय भी न बतला।
उता गये गले कितने॥12॥

पिसे उसके कर से सुरपति।
लुट गया धनपति का सब धन।
नगर सुरपुर-जैसे उजड़े।
मरु बने लाखों नन्दन-वन॥13॥

पर नहीं मनु-सुत के सिर पर।
पड़ सकी सुरतरु की छाया।
सदा उर बना रहा पवि-सा।
कलेजा मुँह को कब आया॥14॥

देख निर्ममता मानव की।
प्रकृति कब नहीं बहुत रोई।
जमा है यह उसका ऑंसू।
नहीं है यह सागर कोई॥15॥

शार्दूल-विक्रीडित
(6)

कैसे तो अवलोकता निज छटा तारों-भरी रात में।
कैसे नर्त्तन देखता सलिल में लाखों निशानाथ का।
होती वारिधिक-मध्य दृष्टिगत क्यों ज्योतिर्मयी भूतियाँ।
आईना मिलता न जो गगन को दिव्याभ अंभोधिक-सा॥1॥

संध्याकाल हुए व्यतीत भव में आये-अमा यामिनी।
सन्नाटा सब ओर पूरित हुए, छाये महा कालिमा।
नीचे-ऊपर अंक में उदधिक के सर्वत्र भू में भ।
तो देखें तमपुंज को प्रलय का जो दृश्य हो देखना॥2॥

क्या धान्वन्तरि के समान सुकृति, क्या दिव्य मुक्तावली।
क्या आरंजित मंजु इन्द्रधानु, क्या रंभा-समा सुन्दरी।
सा रत्न-समूह भव्य भव के अंभोधिक-संभूत हैं।
क्या कल्पद्रुम, क्या सुधा, सुरगवी, क्या इन्दु, क्या इन्दिरा॥3॥

होता है सित दिव्यक्षीर निधिक-सा राका सिता से लसे।
पाता है बहते हिमोपल भ कल्लोल से भव्यता।
जाता है बन कान्त मत्स्य-कुल की आलोक-माला मिले।
देखी है किसने कहाँ उदधिक-सी स्वर्गीय दृश्यावली॥4॥

आभा से भर के सतोगुण हुआ सर्वांग में व्याप्त है।
या सारा जल हो गया सित बने क्षीराब्धिक के दुग्धा-सा।
या भू में, नभ में, समुद्र-तन में है कीत्तिक श्री की भरी।
या राका-रजनी-विभूति-बल से वारीश है राजता॥5॥