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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ - ७

लाखों भूप हुए महा प्रबल हो डूबे अहंभाव में।
भू के इन्द्र बने, तपे तपन-से, डंका बजा विश्व में।
तो भी छूट सके न काल-कर से, काया मिली धूल में।
हो पाई किसकी विभूति यह भू? भू है भयों से भरी॥24॥

ऑंखें हैं मुँदती, मुँदें, अवनि तो होगी सदा सज्जिता।
कोई है मरता, मरे, पर मही होगी प्रसन्नानना।
साँसें हैं चलती, चलें, वसुमती यों ही रहेगी खिली।
अन्यों का दुख, हीन हो हृदय से कैसे धारा जानती॥25॥

जायेगी मुँद ऑंख एक दिन, हो शोभामयी मेदिनी।
छूटेगी यह देह हो अवनि में संजीवनी-सी जड़ी।
होगा नाश अवश्यमेव, महि में हो स्वर्ग की ही सुधा।
होना है तज भूति-भूति नर को, हो भूति से भू भरी॥26॥

डूबे क्यों न पयोधिक में, उदर में ते समाये न क्यों।
टूटा क्यों न पहाड़, क्यों न मुख में ज्वालामुखी के पड़े।
कैसा है यह चाव, भाव इनके क्यों हैं सहे जा रहे।
होता है दुख देख, भूमि! तुझमें भू-भार ही हैं भ॥27॥

तो होता सर सिंधु, शान्त बनता ज्वालामुखी सिक्त हो।
होते सर्व प्रपंच तो न दव के आतीं न आपत्तिकयाँ।
कोई क्यों जलता, न वारिनिधिक में कोई कहीं डूबता।
जो होती जड़ता न, भाव अपना जो भूल पाती न भू॥28॥

क्या पूछँ, पर मानता मन नहीं पूछे बिना, क्या करूँ।
क्या ऑंधी, बहु वात-चक्र, वसुधो! ते दुरुच्छ्वास हैं।
क्या पाथोधिक-प्रकोप कोप तव है, है गर्जना भर्त्सना।
है ज्वाला वह कौन जो धारणि है ज्वालामुखी में भरी॥29॥

संतापाग्नि सदैव है, निकलती ज्वालामुखी-गर्भ से।
आहें हैं पवमान कोप, निधिक का उन्माद उद्वेग है।
भूपों की पशुता-प्रवृत्तिक, मनुजों की दानवी वृत्तिक से।
होती है गुरु पाप-भार-पवि से कम्पायमाना मही॥30॥

माता-सी है दिव्य मूर्ति उसकी नाना महत्तामयी।
सारी ऋध्दि समृध्दि सिध्दि उससे है प्राप्त होती सदा।
क्या प्राणी, तरु क्या, तृणादि तक की है अन्नपूर्णा वही।
है सत्कर्मपरायणा हितरता, है धर्मशीला धारा॥31॥