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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / सप्तम सर्ग / पृष्ठ - १

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अन्तर्जगत्
मन
(1)

मंजुल मलयानिल-समान है किसका मोहक झोंका।
विकसे कमलों के जैसा है विकसित किसे विलोका।
है नवनीत मृदुलतम किसलय कोमल है कहलाता।
कौन मुलायम ऊन के सदृश ऋजुतम माना जाता॥1॥

मंद-मंद हँसनेवाला छवि-पुंज छलकता प्यारेला।
कौन कलानिधि के समान है रस बरसानेवाला।
मधु-सा मधुमय कुसुमित विलसित पुलकित कौन दिखाया।
नव रसाल पादप-सा किसको मंजु मंजरित पाया॥2॥

रंग-बिरंगी घटा-छटा से चित्त चुराये लेते।
नवल नील नीरद-सा किसको देखा जीवन देते।
प्रिय प्रभात-सी पावनता स्निग्धता किसे मिल पाई।
द्रवणशीलता द्रवित ओस-सी किसमें है दिखलाई॥3॥

उठ-उठकर तरंग-मालाएँ किसकी मिलीं सरसती।
सहज तरलता सरिता-सी है किसमें बहुत विलसती।
भले भाव से भूरि भरित है कौन बताया जाता।
मृग-शावक-सा भोलापन है किसका अधिक लुभाता॥4॥

किसकी लाली अवनी में अनुराग-बीज है बोती।
उषा सुन्दरी सी अनुरंजनता है किसमें होती।
परम सरलता सरल बालकों-सी है किसमें मिलती।
किसी अलौकिक कलिका-जैसी किसकी रुचि है खिलती॥5॥

दलगत ओस-बिन्दुओं तक की कान्ति बढ़ानेवाली।
रवि-प्रभात-किरणों की-सी है किसकी कला निराली।
मानव का अति अनुपम तन है किसका ताना-बाना।
मन-समान बहु मधुर विमोहक महि ने किसको माना॥6॥

मानस-महत्ता
(2)

जो कुसुमायुधा कुसुम-सायकों से है विध्द बनाता।
जिसका मोहन मंत्र त्रिकदेवों पर भी है चल पाता।
प्राणि-पुंज क्या, तृण तक में भी जो है रमा दिखाता।
अवनी-तल में जनन-सृष्टि का जो है जनक कहाता॥1॥

सुन्दरता है स्वयं बलाएँ सब दिन जिसकी लेती।
छटा निछावर हो जिसकी छवि को है निज छवि देती।
नारि-पुरुष के प्रेम-सम्मिलन का जो है निर्म्माता।
वह संसार-सूत्र-संचालक मनसिज है कहलाता॥2॥

जिसकी ज्वालाओं में जलते दिग्विजयी दिखलाये।
जिसने करके धवंस धूल में नाना नगर मिलाये।
लोक-लोक विकराल मूर्ति अवलोके हैं कँप जाते।
जिसके लाल-लाल लोचन हैं काल-गाल बन पाते॥3॥

जिसका सृजन आत्म-संरक्षण के निमित्त हो पाया।
जिसने कर भूर-भंग विश्व को प्रलय-दृश्य दिखलाया।
अति कराल-वदना काली जिसकी प्रतीक कहलाई।
उस दुर्वार क्रोधा ने किससे ऐसी क्षमता पाई॥4॥

जिसका उदधिक विशाल उदर है कभी नहीं भर पाता।
लोकपाल जिसकी लहरों में है बहता दिखलाता।
तीन लोक का राज्य अवनि-मण्डल की सारी माया।
पाने पर भी जिसे सर्वदा अति लालायित पाया॥5॥

कामधेनु-कामदता, सुर-तरु की सुर-तरुता न्यारी।
जिसे तृप्त कर सकीं न चिन्तामणि-चिन्ताएँ सारी।
धनद विपुल धन प्राप्त हुए भी जो है नहीं अघाता।
उस लोलुपता-भ लोभ का कौन कहाता धाता॥6॥

छूट-छूटकर जिसके बंधन में है भव बँधा जाता।
जुड़ा हुआ है जिसके द्वारा वसुन्धारा का नाता।
यह जन मेरा, यह धन मेरा, राज-पाट यह मेरा।
ममता की इस मायिकता ने है घर-घर को घेरा॥7॥

जिसने महाजाल फैलाकर लगा-लगाकर लासा।
बात क्या सकल दनुज-मनुज की, सुर-मुनि तक को फाँसा।
विधिक-विरचित नाना विभूतियाँ मूठी में हैं जिसकी।
उस विमोहमय मोह में भरित मिली भावना किसकी॥8॥

जो प्रसून के सदृश चाहता है तारक को चुनना।
जिसके लिए सुलभ है कर से सिता-वसन का बुनना।
सुधा सुधाकर की निचोड़ना हँसी-खेल है जिसको।
जो सुन्द्र का पद दे देता है सदैव जिस-तिसको॥9॥

जिसका तेज नहीं सह सकता दिनकर-सा तेजस्वी।
मान महीपों का हर जो है बनता महा यशस्वी।
जिसका पाँव चूमती रहती है वसुधा की माया।
ऐसा मद उस अहं-भाव ने किस मदांध से पाया॥10॥

जिसके शिर पर है गौरव-मणि-मण्डित मुकुट दिखाता।
जिसको विजय-दुंदुभी का रव है सब ओर सुनाता।
अन्तस्तल-विभूतियों का अधिकपति है कौन कहाता।
महामहिम मन के समान मन ही है माना जाता॥11॥

महामहिम मन
(3)

उन विचित्र विभवों को जिनका प्रकृति-नटी से नाता है।
उन अपूर्व दृश्यावलियों को जिनको गगन दिखाता है।
उस छवि को भूतल सदैव जिसको स्वअंक में रखता है।
नयन न होते भी अनन्त नयनों से कौन निरखता है॥1॥

उस स्वर-लहरी को सदैव जो झंकृत होती रहती है।
सरस सुधा-धारा समस्त वसुधा पर जिससे बहती है।
प्राणि-पुंज जिसको सुन-सुन हो-हो विमुग्ध सिर धुनता है।
उसे कौन हो कान-रहित अगणित कानों से सुनता है॥2॥

उस सुगंध को जो मलयानिल को सुगन्धिकमय करता है।
रंग-बिरंगी कुसुमावलि में बहु सुवास जो भरता है।
मृग-मद-अगरु-चन्दनादिक को जो महँ-महँ महँकाता है।
उसे एक नासिका-हीन क्यों सूँघ नाक से पाता है॥3॥