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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टदश सर्ग / पृष्ठ २

राजभवन के तोरण पर कमनीयतम।
नौबत बड़े मधुर-स्वर से थी बज रही॥
उसके सम्मुख जो अति-विस्तृत-भूमि थी।
मनोहारिता-हाथों से थी सज रही॥16॥

जो विशालतम-मण्डप उसपर था बना।
धीरे-धीरे वह सशान्ति था भर रहा॥
अपने सज्जित-रूप अलौकिक-विभव से।
दर्शक-गण को बहु-विमुग्ध था कर रहा॥17॥

सुनकर शुभ-आगमन जनक-नन्दिनी का।
अभिनन्दन के लिए रहे उत्कण्ठ सब॥
कितनों की थी यह अति-पावन-कामना।
अवलोकेंगे पतिव्रता-पद-कंज कब॥18॥

स्थान बने थे भिन्न-भिन्न सबके लिए।
ऋषि, महर्षि, नृप-वृन्द, विबुध-गण-मण्डली॥
यथास्थान थी बैठी अन्य-जनों सहित।
चित्त-वृत्ति थी बनी विकच-कुसुमावली॥19॥

एक भाग था बड़ा-भव्य मंजुल-महा।
उसमें राजभवन की सारी-देवियाँ॥
थीं विराजती कुल-बालाओं के सहित।
वे थीं वसुधातल की दिव्य-विभूतियाँ॥20॥

जितने आयोजन थे सज्जित-करण के।
नगर में हुए जो मंगल-सामान थे॥
विधि-विडम्बना-विवश तुषार-प्रपात से।
सभी कुछ-न-कुछ अहह हो गये म्लान थे॥21॥

गगन-विभेदी जय-जयकारों के जनक।
विपुल-उल्लसित जनता के आधाद ने॥
जनक-नन्दिनी पुर-प्रवेश की सूचना।
दी अगणित-वाद्यों के तुमुल-निनाद ने॥22॥

सबसे आगे वे सैकड़ों सवार थे।
जो हाथों में दिव्य-ध्वजायें थे लिये॥
जो उड़-उड़ कर यह सूचित कर रही थीं।
कीर्ति-धरा में होती है सत्कृति किये॥23॥

इनके पीछे एक दिव्यतम-यान था।
जिसपर बैठे हुए थे भरत रिपुदमन॥
देख आज का स्वागत महि-नन्दिनी का।
था प्रफुल्ल शतदल जैसा उनका बदन॥24॥

इसके पीछे कुलपति का था रुचिर-रथ।
जिसपर वे हो समुत्फुल्ल आसीन थे॥
बन विमुग्ध थे अवध-छटा अवलोकते।
राम-चरित की ललामता में लीन थे॥25॥

जनक-सुता-स्यंदन इसके उपरान्त था।
जिसपर थी कुसुमों की वर्षा हो रही॥
वे थीं उसपर पुत्रों-सहित विराजती।
दिव्य-ज्योति मुख की थी भव-तम खो रही॥26॥

कुश मणि-मण्डित-छत्र हाथ में थे लिये।
चामीकर का चमर लिये लव थे खड़े॥
एक ओर सादर बैठे सौमित्र थे।
देखे जनता-भक्ति थे प्रफुल्लित-बड़े॥27॥

सबके पीछे बहुश:-विशद-विमान थे।
जिनपर थी आश्रम-छात्रों की मण्डली॥
छात्राओं की संख्या भी थोड़ी न थी।
बनी हुई थी जो वसंत-विटपावली॥28॥

धीरे-धीरे थे समस्त-रथ चल रहे।
विविध-वाद्य-वादन-रत वादक-वृन्द था॥
चारों ओर विपुल-जनता का यूथ था।
जो प्रभात का बना हुआ अरविन्द था॥29॥

बरस रही थी लगातार सुमनावली।
जय-जय-ध्वनि से दिशा ध्वनित थी हो रही॥
उमड़ा हुआ प्रमोद-पयोधि-प्रवाह था।
प्रकृति, उरों में सुकृति, बीज थी बो रही॥30॥