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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टदश सर्ग / पृष्ठ ३

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कुश-लव का श्यामावदात सुन्दर-बदन।
रघुकुल-पुंगव सी उनकी-कमनीयता॥
मातृ-भक्ति-रुचि वेश-वसन की विशदता।
परम-सरलता मनोभाव-रमणीयता॥31॥

मधुर-हँसी मोहिनी-मूर्ति मृदुतामयी।
कान्ति-इन्दु सी दिन-मणि सी तेजस्विता॥
अवलोके द्विगुणित होती अनुरक्ति थी।
बनती थी जनता विशेष-उत्फुल्लिता॥32॥

जब मुनि-पुंगव रथ समेत महि-नन्दिनी।
रथ पहँचा सज्जित-मण्डप के सामने॥
तब सिंहासन से उठ सादर यह कहा।
मण्डप के सब महज्जनों से राम ने॥33॥

आप लोग कर कृपा यहीं बैठे रहें।
जाता हूँ मुनिवर को लाऊँगा यहीं॥
साथ लिये मिथिलाधिप की नन्दिनी को।
यथा शीघ्र मैं फिर आ जाऊँगा॥34॥

रथ पहुँचा ही था कि कहा सौमित्र ने।
आप सामने देखें प्रभु हैं आ रहे॥
श्रवण-रसायन के समान यह कथन सुन।
स्रोत-सुधा के सिय अन्तस्तल में बहे॥35॥

उसी ओर अति-आकुल-ऑंखें लग गईं।
लगीं निछावर करने वे मुक्तावली॥
बहुत समय से कुम्हलाई आशा-लता।
कल्पबेलि सी कामद बन फूली फली॥36॥

रोम-रोम अनुपम-रस से सिंचित हुआ।
पली अलौकिकता-कर से पुलकावली॥
तुरत खिली खिलने में देर हुई नहीं।
बिना खिले खिलती है जो जी की कली॥37॥

घन-तन देखे वह वासना सरस बनी।
जो वियोग-तप-ऋतु-आतप से थी जली॥
विधु-मुख देखे तुरत जगमगा वह उठी।
तम-भरिता थी जो दुश्चिन्ता की गली॥38॥

जब रथ से थीं उतर रही जनकांगजा।
उसी समय मुनिवर की करके वन्दना॥
पहुँचे रघुकुल-तिलक वल्लभा के निकट।
लोकोत्तर था पति-पत्नी का सामना॥39॥

ज्योंही पतिप्राणा ने पति-पद-पर्कं।
स्पर्श किया निर्जीव-मूर्ति सी बन गई॥
और हुए अतिरेक चित्त-उल्लास का।
दिव्य-ज्योति में परिणत वे पल में हुई॥40॥

लगे वृष्टि करने सुमनावलि की त्रिदश।
तुरत दुंदुभी-नभतल में बजने लगी॥
दिव्य-दृष्टि ने देखा, है दिव-गामिनी।
वह लोकोत्तर-ज्योति जो धरा में जगी॥41॥

वह थी पातिव्रत-विमान पर विलसती।
सुकृति, सत्यता, सात्तिवकता की मूर्तियाँ॥
चमर डुलाती थीं करती जयनाद थीं।
सुर-बालायें करती थीं कृति-पूर्तियाँ॥42॥

क्या महर्षि क्या विबुध-वृन्द क्या नृपति-गण।
क्या साधारण जनता क्या सब जनपद॥
सभी प्रभावित दिव्य-ज्योति से हो गए।
मान लोक के लिए उसे आलोक प्रद॥43॥

मुनि-पुंगव-रामायण की बहु-पंक्तियाँ।
पाकर उसकी विभा जगमगाई अधिक॥
कृति-अनुकूल ललिततम उसके ओप से।
लौकिक बातें भी बन पाई अलौकिक॥44॥

कुलपति-आश्रम के छात्रों ने लौटकर।
दिव्य-ज्योति-अवलम्बन से गौरव-सहित॥
वह आभा फैलाई निज-निज प्रान्त में।
जिसके द्वारा हुआ लोक का परम-हित॥45॥