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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / नवम सर्ग / पृष्ठ ३

कहा राम ने आज राज्य जो सुखित है।
जो वह मिलता है इतना फूला फला॥
जो कमला की उस पर है इतनी कृपा।
जो होता रहता है जन-जन का भला॥41॥

अवध पुरी है जो सुर-पुरी सदृश लसी।
जो उसमें है इतनी शान्ति विराजती॥
तो इसमें है हाथ बहुत कुछ प्रिया का।
है यह बात अधिकतर जनता जानती॥42॥

कुछ अशान्ति जो फैल गयी है इन दिनों।
वे ही उसका वारण भी हैं कर रही॥
विविधि-व्यथाएँ सह बह विरह-प्रवाह में।
वे ही दुख-निधि में हैं अहह उतर रही॥43॥

भला कामना किसको है सुख की नहीं।
क्या मैं सुखी नहीं रहना हूँ चाहता॥
क्या मैं व्यथित नहीं हूँ कान्ता-व्यथा से।
क्या मैं सद्व्रत को हूँ नहीं निबाहता॥44॥

तन, छाया-सम जिसका मेरा साथ था।
आज दिखाती उसकी छाया तक नहीं॥
प्रवह-मान-संयोग-स्रोत ही था जहाँ।
अब वियोग-खर-धारा बहती है वहीं॥45॥

आज बन गयी है वह कानन-वासिनी।
जो मम-आनन अवलोके जीती रही॥
आज उसे है दर्शन-दुर्लभ हो गया।
पूत-प्रेम-प्याला जो नित पीती रही॥46॥

आज निरन्तर विरह सताता है उसे।
जो अन्तर से प्रियतम अनुरागिनी थी॥
आह भार अब उसका जीवन हो गया।
आजीवन जो मम-जीवन-संगिनी थी॥47॥

तात! विदित हो कैसे अन्तर्वेदना।
काढ़ कलेजा क्यों मैं दिखलाऊँ तुम्हें॥
स्वयं बन गया जब मैं निर्मम-जीव तो।
मर्मस्थल का मर्म क्यों बताऊँ तुम्हें॥48॥

क्या माताओं की मुझको ममता नहीं।
क्या होता हूँ दुखित न उनका देख दुख॥
क्या पुरजन परिजन अथवा परिवार का।
मुझे नहीं वांछित है सच्चा आत्म-सुख॥49॥

सुकृतिवती का विह्नलतामय-गान सुन।
क्या मेरा अन्तस्तल हुआ नहीं द्रवित॥
कथा बाजियों की सुन कर करुणा भरी।
नहीं हो गया क्या मेरा मानस व्यथित॥50॥

किन्तु प्रश्न यह है, है धार्मिक-कृत्य क्या?
प्रजा-रंजिनी-राजनीति का मर्म क्या?
जिससे हो भव-भला लोक-अराधना।
वह मानव-अवलम्बनीय है कर्म क्या॥51॥

अपना हित किसको प्रिय होता है नहीं।
सम्बन्धी का कौन नहीं करता भला॥
जान बूझ कर वश चलते जंजाल में।
कोई नहीं फँसाता है अपना गला॥52॥

स्वार्थ-सूत्र में बँधा हुआ संसार है।
इष्ट-सिध्दि भव-साधन का सर्वस्व है॥
कार्य-क्षेत्र में उतर जगत में जन्म ले।
सबसे प्यारा सबको रहा निजस्व है॥53॥

यह स्वाभाविक-नियम प्रकृति अनुकूल है।
यदि यह होता नहीं विश्व चलता नहीं॥
पलने पर विधि-बध्द-विधानों के कभी।
जगतीतल का प्राणि-पुंज पलता नहीं॥54॥

किन्तु स्वार्थ-साधन, हित-चिन्ता-स्वजन-की।
उचित वहीं तक है जो हो कश्मल-रहित॥
जो न लोक-हित पर-हित के प्रतिकूल हो।
जो हो विधि-संगत, जो हो छल-बल-रहित॥55॥

कर पर का अपकार लोक-हित का कदन।
निज-हित करना पशुता है, है अधमता॥
भव-हित पर-हित देश-हितों का ध्यान रख।
कर लेना निज-स्वार्थ-सिध्दि है मनुजता॥56॥

मनुजों में वे परम-पूज्य हैं वंद्य हैं।
जो परार्थ-उत्सर्गी-कृत-जीवन रहे॥
सत्य, न्याय के लिए जिन्होंने अटल रह।
प्राण-दान तक किये, सर्व-संकट सहे॥57॥

नृपति मनुज है अत: मनुजता अयन है।
सत्य न्याय का वह प्रसिध्द आधार है॥
है प्रधान-कृति उसकी लोकाराधना।
उसे शान्तिमय शासन का अधिकार है॥58॥

अवनीतल में ऐसे नृप-मणि हैं हुए।
इन बातों के जो सच्चे-आदर्श थे॥
दिव्य-दूत जो विभु-विभूतियों के रहे।
कर्म्म-पूततम जिनके मर्म-स्पर्श थे॥59॥

हरिश्चन्द्र, शिवि आदि नृपों की कीर्तियाँ।
अब भी हैं वसुधा की शान्ति-विधायिनी॥
भव-गौरव ऋषिवर दधीचि की दिव्य-कृति।
है अद्यापि अलौकिक शिक्षा-दायिनी॥60॥