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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / नवम सर्ग / पृष्ठ ४

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है वह मनुज न, जिसमें मिली न मनुजता।
अनीति रत में कहाँ नीति-अस्तित्व है॥
वह है नरपति नहीं जो नहीं जानता।
नरपतित्व का क्या उत्तरदायित्व है॥61॥

कोई सज्जन, ज्ञानमान, मतिमान, नर।
यथा-शक्ति परहित करना है चाहता॥
देश, जाति, भव-हित अवसर अवलोक कर।
प्राय: वह निज-हित को भी है त्यागता॥62॥

यदि ऐसा है तो क्या यह होगा विहित।
कोई नृप अपने प्रधान-कर्तव्य का॥
करे त्याग निज के सुख-दुख पर दृष्टि रख।
अथवा मान निदेश मोह-मन्तव्य का॥63॥

जिसका जितना गुरु-उत्तरदायित्व है।
उसे महत उतना ही बनना चाहिए॥
त्याग सहित जिसमें लोकाराधन नहीं।
वह लोकाधिप कहलाता है किसलिए॥64॥

बात तुम्हें लोकापवाद की ज्ञात है।
मुझे लोक-उत्पीड़न वांछित है नहीं॥
अत: बनूँ मैं क्यों न लोक-हित-पथ-पथिक।
जहाँ सुकृति है शान्ति विलसती है वहीं॥65॥

मैं हूँ व्यथित अधिकतर-व्यथिता है प्रिया।
क्योंकि सताती है आ-आ सुख-कामना॥
है यह सुख-कामना एक उन्मत्तता।
भरी हुई है इसमें विविध-वासना॥66॥

यह सरसा-संस्कृति है यह है प्रकृति-रति।
यह विभाव संसर्ग-जनित-अभ्यास है॥
है यह मूर्ति मनुज के परमानन्द की।
वर-विकास, उल्लास, विलास, निवास है॥67॥

त्याग-कामना भी नितान्त कमनीय है।
मानवता-महिमा द्वारा है अंकिता॥
बन कर्तव्य परायणता से दिव्यतम।
लोक-मान्य-मन्त्रों से है अभिमन्त्रिता॥68॥

मैंने जो है त्याग किया वह उचित है।
ऐसा ही करना इस समय सुकर्म्म था॥
इसीलिए सहमत विदेहजा भी हुई।
क्योंकि यही सहधार्मिणी परम धर्म था॥69॥

कितने सह साँसतें बहुत दुख भोगते।
कितने पिसते पड़ प्रकोप तलवों तले॥
दमन-चक्र यदि चलता तो बहता लहू।
वृथा न जाने कितने कट जाते गले॥70॥

तात! देख लो साम-नीति के ग्रहण से।
हुआ प्राणियों का कितना उपकार है॥
प्रजा सुरक्षित रही पिसी जनता नहीं।
हुआ लोक-हित मचा न हाहाकार है॥71॥

हाँ! वियोगिनी प्रिया-दशा दयनीय है।
मेरा उर भी इससे मथित अपार है॥
किन्तु इसी अवसर पर आश्रम में गमन।
दोनों के दुख का उत्तम-प्रतिकार है॥72॥

जब से सम्बन्धित हम दोनों हुए हैं।
केवल छ महीने का हुआ विनियोग है॥
रहीं जिन दिनों लंका में जनकांगजा।
किन्तु आ गया अब ऐसा संयोग है॥73॥

जो यह बतलाता है अहह वियोग यह।
होगा चिरकालिक बरसों तक रहेगा॥
अत: सताती है यह चिन्ता नित मुझे।
पतिप्राणा का हृदय इसे क्यों सहेगा॥74॥

पर मुझको इसका पूरा विश्वास है।
हो अधीर भी तजेंगी नहीं धीरता॥
प्रिया करेंगी मम-इच्छा की पूर्ति ही।
पूत रहेगी नयन-नीर की नीरता॥75॥

सहायता उनके सद्भाव-समूह की।
सदा करेगी तपोभूमि-शुचि-भावना॥
उन्हें सँभालेगी मुनि की महनीयता॥
कुल-दीपक संतान-प्रसव-प्रस्तावना॥76॥

इसीलिए मुझको अशान्ति में शान्ति है।
और विरह में भी हूँ बहुत व्यथित न मैं।
चिन्तित हूँ पर अतिशय-चिन्तित हूँ नहीं।
इसीलिए बनता हूँ विचलित-चित न मैं॥77॥

किन्तु जनकजा के अभाव की पूर्तियाँ।
हमें तुम्हें भ्राताओं भ्रातृ-वधू सहित॥
करना होगा जिससे माताएँ तथा।
परिजन, पुरजन, यथा रीति होवें सुखित॥78॥

तात! करो यह यत्न दलित दुख-दल बने।
सरस-शान्ति की धरा घर-घर में बहे॥
कोई कभी असुख-मुख अवलोके नहीं।
सुखमय-वासर से विलसित वसुधा रहे॥79॥

दोहा

सीता का सन्देश कह, सुन आदर्श पवित्र।
वन्दन कर प्रभु-कमल-पग चले गये सौमित्रा॥80॥