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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ १

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दशम सर्ग : तपस्विनी आश्रम
छन्द : चौपदे

प्रकृति का नीलाम्बर उतरे।
श्वेत-साड़ी उसने पाई॥
हटा घन-घूँघट शरदाभा।
विहँसती महि में थी आई॥1॥

मलिनता दूर हुए तन की।
दिशा थी बनी विकच-वदना॥
अधर में मंजु-नीलिमामय।
था गगन-नवल-वितान तना॥2॥

चाँदनी छिटिक छिटिक छबि से।
छबीली बनती रहती थी॥
सुधाकर-कर से वसुधा पर।
सुधा की धारा बहती थी॥3॥

कहीं थे बहे दुग्ध-सोते।
कहीं पर मोती थे ढलके॥
कहीं था अनुपम-रस बरसा।
भव-सुधा-प्याला के छलके॥4॥

मंजुतम गति से हीरक-चय।
निछावर करती जाती थी॥
जगमगाते ताराओं में।
थिरकती ज्योति दिखाती थी॥5॥

क्षिति-छटा फूली फिरती थी।
विपुल-कुसुमावलि विकसी थी॥
आज वैकुण्ठ छोड़ कमला।
विकच-कमलों में विलसी थी॥6॥

पादपों के श्यामल-दल ने।
प्रभा पारद सी पाई थी॥
दिव्य हो हो नवला-लतिका।
विभा सुरपुर से लाई थी॥7॥

मंद-गति से बहतीं नदियाँ।
मंजु-रस मिले सरसती थीं॥
पा गये राका सी रजनी।
वीचियाँ बहुत विलसती थीं॥8॥

किसी कमनीय-मुकुर जैसा।
सरोवर विमल-सलिल वाला॥
मोहता था स्वअंक में ले।
विधु-सहित मंजुल-उड़ु-माला॥9॥

शरद-गौरव नभ-जल-थल में।
आज मिलते थे ऑंके से॥
कीर्ति फैलाते थे हिल हिल।
कास के फूल पताके से॥10॥

चतुष्पद

तपस्विनी-आश्रम समीप थी।
एक बड़ी रमणीय-वाटिका॥
वह इस समय विपुल-विलसितथी।
मिले सिता की दिव्य साटिका॥11॥

उसमें अनुपम फूल खिले थे।
मंद-मंद जो मुसकाते थे॥
बड़े भले-भावों से भर-भर।
भली रंगतें दिखलाते थे॥12॥

छोटे-छोटे पौधे उसके।
थे चुप खड़े छबि पाते॥
हो कोमल-श्यामल-दल शोभित।
रहे श्यामसुन्दर कहलाते॥13॥

रंग-बिरंगी विविध लताएँ।
ललित से ललित बन विलसित थीं॥
किसी कलित कर से लालित हो।
विकच-बालिका सी विकसित थीं॥14॥

इसी वाटिका में निर्मित था।
एक मनोरम-शन्ति-निकेतन॥
जो था सहज-विभूति-विभूषित।
सात्तिवकता-शुचिता-अवलम्बन॥15॥

था इसके सामने सुशोभित।
एक विशाल-दिव्य-देवालय॥
जिसका ऊँचा-कलस इस समय।
बना हुआ था कान्त-कान्तिमय॥16॥

शान्ति-निकेतन के आगे था।
एक सित-शिला विरचित-चत्वर॥
उस पर बैठी जनक-नन्दिनी।
देख रही थीं दृश्य-मनोहर॥17॥

प्रकृति हँस रही थी नभतल में।
हिम-दीधित को हँसा-हँसा कर॥
ओस-बिन्दु-मुक्तावलि द्वारा।
गोद सिता की बार-बार भर॥18॥

चारु-हाँसिनी चन्द्र-प्रिया की।
अवलोकन कर बड़ी रुचिर-रुचि॥
देखे उसकी लोक-रंजिनी।
कृति, नितान्त-कमनीय परम शुचि॥19॥

जनक-सुता उर द्रवीभूत था।
उनके दृग से था जल जाता॥
कितने ही अतीत-वृत्तों का।
ध्यान उन्हें था अधिक सताता॥20॥