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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ ३

तरु वर्षा-शीतातप को सहकर स्वयं।
शरणागत को करते आश्रय दान हैं॥
प्रात: कलरव से होता यह ज्ञात है।
खगकुल करते उनका गौरव-गान हैं॥41॥

पाता है उपहार 'प्रहारक, फलों का-
किससे, किसका मर्मस्पर्शी मौन है॥
द्रुम समान अवलम्बन विहग-समूह का।
कर्तव्योंकारी का हित-कर्ता कौन है॥42॥

तरु जड़ हैं इन सारे कामों को कभी।
जान बूझ कर वे कर सकते हैं नहीं॥
पर क्या इनमें छिपे निगूढ़-रहस्य हैं।
कैसे जा सकती हैं ए बातें कही॥43॥

कला-कान्त कितनी लीलायें प्रकृति की।
हैं ललामतम किन्तु हैं जटिलतामयी॥
कब उससे मति चकिता होती है नहीं।
कभी नहीं अनुभूति हुई उनपर जयी॥44॥

कहाँ किस समय क्या होता है किसलिए।
कौन इन रहस्यों का मर्म बता सका॥
भव-गुत्थी को खोल सका कब युक्ति-नख।
चल इस पथ पर कब न विचार-पथिक थका॥45॥

प्रकृति-भेद वह ताला है जिसकी कहीं।
अब तक कुंजी नहीं किसी को भी मिली॥
वह वह कीली है विभुता-भू में गड़ी।
जो न हिलाये ज्ञान-शक्ति के भी हिली॥46॥

जो हो, पर पुत्रों भव-दृश्यों को सदा।
अवलोकन तुम लोग करो वर-दृष्टि से॥
और करो सेचन वसुधा-हित-विटप का।
अपनी-सत्कृति की अति-सरसा-वृष्टि से॥47॥

जो सुर-सरिता हैं नेत्रों के सामने।
जिनकी तुंग-तरंगें हैं ज्योतिर्मयी॥
कीर्ति-पताका वे हैं रविकुल-कलस की।
हुई लोकहित-ललकों पर वे हैं जयी॥48॥

तुल लोगों के पूर्व-पुरुष थे, बहु-विदित-
भूप भगीरथ सत्य-पराक्रम धर्म-रत॥
उन्हीं के तपोबल से वह शुचि-जल मिला।
जिसके सम्मुख हुई चित्त-शुचिता-विनत॥49॥

उच्च-हिमालय के अंचल की कठिनता।
अल्प भी नहीं उन्हें बना चंचल सकी॥
दुर्गमता गिरि से निधि तक के पंथ की।
सोचे उनकी अथक-प्रवृत्ति नहीं थकी॥50॥

उनका शिव-संकल्प सिध्दि-साधन बना।
उनके प्रबल-प्रयत्नों से बाधा टली॥
पथ के प्रस्तर सुविधा के बिस्तर बने।
सलिल-प्रगति के ढंगों में पटुता ढली॥51॥

कुलहित की कामना लोक-हित लगन से।
जब उर सर में भक्तिभाव-सरसिज खिला॥
शिव-सिर-लसिता-सरिता हस्तगता हुई।
ब्रह्म-कमण्डल-जलमहि-मण्डल को मिला॥52॥

सुर-सरिता को पाकर भारत की धरा।
धन्य हो गयी और स्वर्ण-प्रसवा बनी।
हुई शस्य-श्यामला सुधा से सिंचिता।
उसे मिले धर्मज्ञ धनद जैसे धानी॥53॥

वह काशी जो है प्रकाश से पूरिता।
जहाँ भारती की होती है आरती॥
जो सुर-सरिता पूत-सलिल पाती नहीं।
पतित-प्राणियों को तो कैसे तारती॥54॥

सुन्दर-सुन्दर-भूति भरे नाना-नगर।
किसके अति-कमनीय-कूल पर हैं लसे॥
तीर्थराज को तीर्थराजता मिल गई।
किस तटिनी के पावनतम-तट पर बसे॥55॥

हृदय-शुध्दता की है परम-सहायिका।
सुर-सरिता स्वच्छता-सरसता मूल है॥
उसका जीवन, जीवन है बहु जीव का।
उसका कूल तपादिक के अनुकूल है॥56॥

साधाक की साधना सिध्दि-उन्मुख हुई।
खुले ज्ञान के नयन अज्ञता से ढके॥
किसके जल-सेवन से संयम सहित रह।
योग योग्यता बहु-योगी-जन पा सके॥57॥

जनक-प्रकृति-प्रतिकूल तरलता-ग्रहण कर।
भीति-रहित हो तप-ऋतु के आतंक से॥
हरती है तपती धरती के ताप को।
किसकी धारा निकल धराधर-अंक से॥58॥

किससे सिंचते लाखों बीघे खेत हैं।
कौन करोड़ों मन उपजाती अन्न है॥
कौन हरित रखती है अगणित-द्रुमों को।
सदा सरस रह करती कौन प्रसन्न है॥59॥

कौन दूर करती प्यासों की प्यास है।
कौन खिलाती बहु-भूखों को अन्न है॥
कौन वसन-हीनों को देती वसन है।
निर्धन-जन को करती धन-सम्पन्न है॥60॥