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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचदश सर्ग / पृष्ठ ४

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है उपकार-परायणा सुकृति-पूरिता।
इसीलिए है ब्रह्म-कमण्डल-वासिनी॥
है कल्याण-स्वरूपा भव-हित-कारिणी।
इसीलिए वह है शिव-शीश-विलासिनी॥61॥

है सित-वसना सरसा परमा-सुन्दरी।
देवी बनती है उससे मिल मानवी॥
उसे बनाती है रवि-कान्ति सुहासिनी।
है जीवन-दायिनी लोक की जाह्न्वी॥62॥

अवगाहन कर उसके निर्मल-सलिल में।
मल-विहीन बन जाते हैं यदि मलिन-मति॥
तो विचित्र क्या है जो निपतन पथ रुके।
सुर-सरिता से पा जाते हैं पतित गति॥63॥

महज्जनों के पद-जल में है पूतता।
होती है उसमें जन-हित गरिमा भरी॥
अतिशयता है उसमें ऐसी भूति की।
इसीलिए है हरिपादोदक सुरसरी॥64॥

गौरी गंगा दोनों हैं गिरि-नन्दिनी।
रमा समा गंगा भी हैं वैभव-भरी॥
गिरा समाना वे भी गौरव-मूर्ति हैं।
विबुध न कहते कैसे उनको सुरसरी॥65॥

पुत्रों रवि का वंश समुज्ज्वल-वंश है।
तुम लोगों के पूर्व-पुरुष महनीय हैं॥
सुर-सरिता-प्रवाह उद्भावन के सदृश।
उनके कितने कृत्य ही अतुलनीय हैं॥66॥

तुम लोगों के पितृदेव भी वंश के।
दिव्य पुरुष हैं, है महत्तव उनमें भरा॥
मानवता की मर्यादा की मूर्ति हैं।
उन्हें लाभ कर धन्य हो गयी है धरा॥67॥

सुन वनवास चतुर्दश-वत्सर का हुए-
अल्प भी न उद्विग्न न म्लान बदन बना॥
तृण समान साम्राज्य को तजा सुखित हो।
हुए कहाँ ऐसे महनीय-महा-मना॥68॥

धर्म धुरंधरता है धा्रुव जैसी अटल।
सदाचार सत्यव्रत के वे सेतु हैं॥
लोकोत्तर है उनकी लोकाराधना।
उड़ते उनके कलित-कीर्ति के केतु हैं॥69॥

राजभवन था सज्जित सुरपुर-सदन सा।
कनक-रचित बहु-मणि-मण्डित-पर्यंक था॥
रही सेविका सुरबाला सी सुन्दरी।
गृह-नभ का सुख राका-निशा-मयंक था॥70॥

इनको तजकर रहना पड़ा कुटीर में।
निर्जन-वन में सोना पड़ा तृणादि पर॥
फिर भी विकच बना रहता मुख-कंज था।
किसका चित्त दिखाया इतना उच्चतर॥71॥

होता है उत्ताल-तरंगाकुल-जलधि।
है अबाध्यता भी उसकी अविदित नहीं॥
किन्तु बनाया सेतु उन्होंने उसी पर।
किसी काल में हुआ नहीं ऐसा कहीं॥72॥

तुम लोगों के पिता लोक-सर्वस्व हैं।
दिव्य-भूतियों के अद्भुत-आगार हैं॥
हैं रविकुल के रवि-सम वे हैं दिव्यतम।
वे वसुधातल के अनुपम-श्रृंगार हैं॥73॥

उनके पद का करो अनुसरण पूत हो।
सच्चे-आत्मज बनो भुवन का भय हरो॥
रत्नाकर के बनो रत्न तुम लोग भी।
भले-भले भावों को अनुभव में भरो॥74॥

प्रकृति-पाठ को पठन करो शुचि-चित्त से।
पत्ते-पत्ते में है प्रिय-शिक्षा भरी॥
सोचो समझो मनन करो खोलो नयन।
जीवन-जल में ठीक चलेगी कृति-तरी॥75॥

दोहा

देख धूप होते समझ मृदुल-बाल को फूल।
चली गईं सीता ससुत तज सुर-सरिता कूल॥76॥