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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ३

भस्म हो गये प्रिय स्वजनों का तन अवलोके।
उनकी दुर्गति का वर्णन करना रो रो के॥
बहुत कलपना उसको जो था वारि न पाता।
जब होता है याद चित व्यथित है हो जाता॥41॥

समर-समय की महालोक संहारक लीला।
रण भू का पर्वत समान ऊँचा शव-टीला॥
बहती चारों ओर रुधिर की खर-तर-धारा।
धरा कँपा कर बजता हाहाकार नगारा॥42॥

क्रंदन, कोलाहल, बहु आहों की भरमारें।
आहत जन की लोक प्रकंपित करी पुकारें॥
कहाँ भूल पाईं वे तो हैं भूल न पाती।
स्मृति उनकी है आज भी मुझे बहुत सताती॥43॥

आह! सती सिरधारी प्रमीला का बहु क्रंदन।
उसकी बहु व्याकुलता उसका हृदयस्पंदन॥
मेघनाद शव सहित चिता पर उसका चढ़ना।
पति प्राणा का प्रेम पंथ में आगे बढ़ना॥44॥

कुछ क्षण में उस स्वर्ग-सुन्दरी का जल जाना।
मिट्टी में अपना महान सौन्दर्य मिलाना॥
बड़ी दु:ख-दायिनी मर्म-वेधी-बातें हैं।
जिनको कहते खड़े रोंगटे हो जाते हैं॥45॥

पति परायणा थी वह क्यों जीवित रह पाती।
पति चरणों में हुई अर्पिता पति की थाती॥
धन्य भाग्य, जो उसने अपना जन्म बनाया।
सत्य-प्रेम-पथ-पथिका बन बहु गौरव पाया॥46॥

व्यथा यही है पड़ी सती क्यों दुख के पाले।
पड़े प्रेम-मय उर में कैसे कुत्सित छाले॥
आह! भाग्य कैसे उस पति प्राणा का फूटा।
मरने पर भी जिससे पति पद-कंज न छूटा॥47॥

कलह मूल हूँ शान्ति इसी से मैं खोती हूँ।
मर्माहत मैं इसीलिए बहुधा होती हूँ॥
जो पापिनी-प्रवृत्ति न लंका-पति की होती।
क्यों बढ़ता भूभार मनुजता कैसे रोती॥48॥

अच्छा होता भली-वृत्ति ही जो भव पाता।
मंगल होता सदा अमंगल मुख न दिखाता॥
सबका होता भला फले फूले सब होते।
हँसते मिलते लोग दिखाते कहीं न रोते॥49॥

होता सुख का राज, कहीं दुख लेश न होता।
हित रत रह, कोई न बीज अनहित का बोता॥
पाकर बुरी अशान्ति गरलता से छुटकारा।
बहती भव में शान्ति-सुधा की सुन्दर धारा॥50॥

हो जाता दुर्भाव दूर सद्भाव सरसता।
उमड़-उमड़ आनन्द जलद सब ओर बरसता॥
होता अवगुण मग्न गुण पयोनिधि लहराता।
गर्जन सुन कर दोष निकट आते थर्राता॥51॥

फूली रहती सदा मनुजता की फुलवारी।
होती उसकी सरस सुरभि त्रिभुवन की प्यारी॥
किन्तु कहूँ क्या है विडम्बना विधि की न्यारी।
इतना कह कर खिन्न हो गईं जनक दुलारी॥52॥

कहा राम ने यहाँ इसलिए मैं हूँ आया।
मुदित कर सकूँ तुम्हें प्रियतमे कर मनभाया॥
किन्तु समय ने जब है सुन्दर समा दिखाया।
पड़ी किस लिए हृदय-मुकुर में दुख की छाया॥53॥

गर्भवती हो रखो चित्त उत्फुल सदा ही।
पड़े व्यथित कर विषय की न उसपर परछाँही॥
माता-मानस-भाव समूहों में ढलता है।
प्रथम उदर पलने ही में बालक पलता है॥54॥

हरे भरे इस पीपल तरु को प्रिये विलोको।
इसके चंचल-दीप्तिमान-दल को अवलोको॥
वर-विशालता इसकी है बहु-चकित बनाती।
अपर द्रुमों पर शासन करती है दिखलाती॥55॥

इसके फल दल से बहु-पशु-पक्षी पलते हैं।
पा इसका पंचांग रोग कितने टलते हैं॥
दे छाया का दान सुखित सबको करता है।
स्वच्छ बना वह वायु दूषणों को हरता है॥56॥

मिट्टी में मिल एक बीज, तरु बन जाता है।
जो सदैव बहुश: बीजों को उपजाता है॥
प्रकट देखने में विनाश उसका होता है।
किन्तु सृष्टि गति सरि का वह बनता सोता है॥57॥

शीतल मंद समीर सौरभित हो बहता है।
भव कानों में बात सरसता की कहता है॥
प्राणि मात्र के चित को वह पुलकित करता है।
प्रात: को प्रिय बना सुरभि भू में भरता है॥58॥

सुमनावलि को हँसा खिलाता है कलिका को।
लीलामयी बनाता है लसिता लतिका को॥
तरु दल को कर केलि-कान्त है कला दिखाता।
नर्तन करना लसित लहर को है सिखलाता॥59॥

ऐसे सरस पवन प्रवाह से, जो बुझ जावे।
कोई दीपक या पत्ता गिरता दिखलावे॥
या कोई रोगी शरीर सह उसे न पावे।
या कोई तृण उड़ दव में गिर गात जलावे॥60॥