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वैदेही वनवास / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ ४

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तो समीर को दोषी कैसे विश्व कहेगा।
है वह अपचिति-रत न अत: निर्दोष रहेगा॥
है स्वभावत: प्रकृति विश्वहित में रत रहती।
इसीलिए है विविध स्वरूपवती अति महती॥61॥

पंचभूत उसकी प्रवृत्ति के हैं परिचायक।
हैं उसके विधान ही के विधि सविधि-विधायक॥
भव के सब परिवर्तन हैं स्वाभाविक होते।
मंगल के ही बीज विश्व में वे हैं बोते॥62॥

यदि है प्रात: दीप पवन गति से बुझ जाता।
तो होता है वही जिसे जन-कर कर पाता॥
सूखा पत्ता नहीं किरण ग्राही होता है।
होके रस से हीन सरसताएँ खोता है॥63॥

हरित दलों के मध्य नहीं शोभा पाता है।
हो निस्सार विटप में लटका दिखलाता है॥
अत: पवन स्वाभाविक गति है उसे गिराती।
जिससे वह हो सके मृत्तिका बन महिथाती॥64॥

सहज पवन की प्रगति जो नहीं है सह जाती।
तो रोगी को सावधानता है सिखलाती॥
रूपान्तर से प्रकृति उसे है डाँट बताती।
स्वास्थ्य नियम पालन निमित्त है सजग बनाती॥65॥

यह चाहता समीर न था तृण उड़ जल जाए।
थी न आग की चाह राख वह उसे बनाए॥
किन्तु पलक मारते हो गईं उभय क्रियाएँ।
होती हैं भव में प्राय: ऐसी घटनाएँ॥66॥

जो हो तृण के तुल्य तुच्छ उड़ते फिरते हैं।
प्रकृति करों से वे यों ही शासित होते हैं॥
यह शासन कारिणी वृत्ति श्रीमती प्रकृति की।
है बहु मंगलमयी शोधिका है संसृति की॥67॥

आंधी का उत्पात पतन उपलों का बहुधा।
हिल हिल कर जो महानाश करती है वसुधा॥
ज्वालामुखी-प्रकोप उदधि का धरा निगलना।
देशों का विध्वंस काल का आग उगलना॥68॥

इसी तरह के भव-प्रपंच कितने हैं ऐसे।
नहीं बताए जा सकते हैं वे हैं जैसे॥
है असंख्य ब्रह्मांड स्वामिनी प्रकृति कहाती।
बहु-रहस्यमय उसकी गति क्यों जानी जाती॥69॥

कहाँ किसलिए कब वह क्या करती है क्यों कर।
कभी इसे बतला न सकेगा कोई बुधवर॥
किन्तु प्रकृति का परिशीलन यह है जतलाता।
है स्वाभाविकता से उसका सच्चा नाता॥70॥

है वह विविध विधानमयी भव-नियमन-शीला।
लोक-चकित-कर है उसकी लोकोत्तर लीला॥
सामंजस्यरता प्रवृत्ति सद्भाव भरी है।
चिरकालिक अनुभूति सर्व संताप हरी है॥71॥

यदि उसकी विकराल मूर्ति है कभी दिखाती।
तो होती है निहित सदा उसमें हित थाती॥
तप ऋतु आकर जो होता है ताप विधाता।
तो ला कर धन बनता है जग-जीवन-दाता॥72॥

जो आंधी उठ कर है कुछ उत्पात मचाती।
धूल उड़ा डालियाँ तोड़ है विटप गिराती॥
तो है जीवनप्रद समीर का शोधन करती।
नयी हितकरी भूति धरातल में है भरती॥73॥

जहाँ लाभप्रद अंश अधिक पाया जाता है।
थोड़ी क्षति का ध्यान वहाँ कब हो पाता है॥
जहाँ देश हित प्रश्न सामने आ जाता है।
लाखों शिर अर्पित हो कटता दिखलाता है॥74॥

जाति मुक्ति के लिए आत्म-बलि दी जाती है।
परम अमंगल क्रिया पुण्य कृति कहलाती है॥
इस रहस्य को बुध पुंगव जो समझ न पाते।
तो प्रलयंकर कभी नहीं शंकर कहलाते॥75॥

सृष्टि या प्रकृति कृति को, बहुधा कह कर माया।
कुल विबुधों ने है गुण-दोष-मयी बतलाया॥
इस विचार से है चित्-शक्ति कलंकित होती।
बहु विदिता निज सर्व शक्तिमत्त है खोती॥76॥

किन्तु इस विषय पर अब मैं कुछ नहीं कहूँगा।
अधिक विवेचन के प्रवाह में नहीं बहूँगा।
फिर तुम हुईं प्रफुल्ल हुआ मेरा मनभाया।
प्रिये! कहाँ तुमने ऐसा कोमल चित पाया॥77॥

सब को सुख हो कभी नहीं कोई दुख पाए।
सबका होवे भला किसी पर बला न आये॥
कब यह सम्भव है पर है कल्पना निराली।
है इसमें रस भरा सुधा है इसमें ढाली॥78॥

दोहा

इतना कह रघवुंश-मणि, दिखा अतुल-अनुराग।
सदन सिधारे सिय सहित, तज बहु-विलसित बाग॥79॥