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किसी सोचते हुए आदमी की
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आँखों-सा नम और सुंदर था दिन।
  
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पंडुक बहुत ख़ुश थे
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उनके पंखों के रोएँ
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उतरते हुए जाड़े की
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हल्की-सी सिहरन में
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उत्फुल्ल थे।
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सड़क पर निकल आए थे खटोले।
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पिटे हुए दो बच्चे
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गले-गले मिल सोए थे एक पर–
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दोनों के गाल पर ढलक आए थे
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एक-दूसरे के आँसू।
  
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“औरतें इतना काटती क्यों हैं ?”
आँखों-सा नम और सुंदर था दिन।<br><br>
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कूड़े के कैलाश के पार
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गुड्डी चिपकाती हुई लड़की से
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किसका उतारती हैं गुस्सा?"
  
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फेंकी हुई चीज़ें भी
उतरते हुए जाड़े की<br>
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ख़ूब फोड़ देती हैं भांडा
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घर की असल हैसियत का !
सड़क पर निकल आए थे खटोले।<br>
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पिटे हुए दो बच्चे<br>
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गले-गले मिल सोए थे एक पर–<br>
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दोनों के गाल पर ढलके आए थे<br>
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एक-दूसरे के आँसू।<br><br>
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“औरतें इतना काटती क्यों हैं ?”<br>
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लड़की ने कुछ जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी
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और झट से दौड़ कर, बैठ गई उधर
गुड्डी चिपकाती हुई लड़की से<br>
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जहाँ जुएँ चुन रही थीं सखियाँ
मंझा लगाते हुए लड़के ने पूछा–<br>
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एक-दूसरे के छितराए हुए केशों से
“जब देखो, काट-कूट, छील-छाल, झाड़-झूड़<br>
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नारियल-तेल चपचपाकर।
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किसका उतारती हैं गुस्सा?"<br><br>
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जो चुनी जा रही थीं–
खूब फोड़ देती हैं भांडा<br>
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सिर्फ़ जुएँ नहीं थीं
घर की असल हैसियत का !<br><br>
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घर के वे सारे खटराग थे
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जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा।
  
लड़की ने कुछ जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी<br>
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क्या जाने कितनी शताब्दियों से
और झट से दौड़ कर, बैठ गई उधर<br>
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चल रहा है यह सिलसिला
जहाँ जुएँ चुन रही थीं सखियाँ<br>
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और एक आदि स्त्री
एक-दूसरे के छितराए हुए केशों से<br>
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दूसरी उतनी ही पुरानी सखी के
नारियल का तेल चपचपाकर<br>
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छितराए हुए केशों से
दरअसल–<br>
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चुन रही हैं जुएँ
जो चुनी जा रही थीं–<br>
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सितारे और चमकुल!
सिर्फ़ जुएँ नहीं थीं<br>
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जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा।<br><br>
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क्या जाने कितनी शताब्दियों से<br>
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चल रहा है यह सिलसिला<br>
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और एक आदि स्त्री<br>
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दूसरी उतनी ही पुरानी सखी के<br>
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छितराए हुए केशों से<br>
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चुन रही हैं जुएँ<br>
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सितारे और चमकुल!<br><br>
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16:23, 24 जनवरी 2020 के समय का अवतरण

किसी सोचते हुए आदमी की
आँखों-सा नम और सुंदर था दिन।

पंडुक बहुत ख़ुश थे
उनके पंखों के रोएँ
उतरते हुए जाड़े की
हल्की-सी सिहरन में
उत्फुल्ल थे।
सड़क पर निकल आए थे खटोले।
पिटे हुए दो बच्चे
गले-गले मिल सोए थे एक पर–
दोनों के गाल पर ढलक आए थे
एक-दूसरे के आँसू।

“औरतें इतना काटती क्यों हैं ?”
कूड़े के कैलाश के पार
गुड्डी चिपकाती हुई लड़की से
मंझा लगाते हुए लड़के ने पूछा–
“जब देखो, काट-कूट, छील-छाल, झाड़-झूड़
गोभी पर, कपड़ों पर, दीवार पर
किसका उतारती हैं गुस्सा?"

हम घर के आगे हैं कूड़ा–
फेंकी हुई चीज़ें भी
ख़ूब फोड़ देती हैं भांडा
घर की असल हैसियत का !

लड़की ने कुछ जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी
और झट से दौड़ कर, बैठ गई उधर
जहाँ जुएँ चुन रही थीं सखियाँ
एक-दूसरे के छितराए हुए केशों से
नारियल-तेल चपचपाकर।

दरअसल–
जो चुनी जा रही थीं–
सिर्फ़ जुएँ नहीं थीं
घर के वे सारे खटराग थे
जिनसे भन्नाया पड़ा था उनका माथा।

क्या जाने कितनी शताब्दियों से
चल रहा है यह सिलसिला
और एक आदि स्त्री
दूसरी उतनी ही पुरानी सखी के
छितराए हुए केशों से
चुन रही हैं जुएँ
सितारे और चमकुल!