भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिन बीता लो आई रात / वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:10, 6 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन्द्र खरे 'अकेला' }} {{KKCatGhazal}} <poem> दिन बीता लो आई र…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिन बीता लो आई रात
जीवन की सच्चाई रात
 
अक्सर नापा करती है
आँखों की गहराई रात
 
सारी रात पे भारी है
शेष बची चौथाई रात
 
मेरे दिन के बदले फिर
लो उसने लौटाई रात
 
नखरे सुब्ह के देखे हैं
कब हमसे शरमाई रात
 
बिस्तर-बिस्तर लेटी है
कितनी है हरजाई रात
 
सोए नहीं 'अकेला' तुम
फिर किस तरह बिताई रात