भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जलता हूँ, सुलगता हूँ, पिघलता हूँ कि मैं हूँ / मुकुल सरल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:40, 13 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुकुल सरल }} {{KKCatGhazal}} <poem> जलता हूँ, सुलगता हूँ, पिघलता…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जलता हूँ, सुलगता हूँ, पिघलता हूँ कि मैं हूँ
जीता हूँ कि तू है कहीं, मरता हूँ कि मैं हूँ

मैं हूँ कि मैं कि तू है, तू है कि तू ही तू
छूकर तुझे तस्दीक मैं करता हूँ कि मैं हूँ

होना मेरा क्या होना है, राजा न सिपाही
हर रोज़ रजिस्टर में ये भरता हूँ कि मैं हूँ

ये इश्क़, जुनूँ क्या है, क्या खौफ़, क्या गिला
ये आग है अपनी ही, जलता हूँ कि मैं हूँ