भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक लोकगीत पढ़ते हुए / ज्ञान प्रकाश चौबे

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:47, 21 जून 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज्ञान प्रकाश चौबे |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> चूल्हे में …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चूल्हे में आग जले
जाड़े में रात रे !
आँखों में नींद पके
बटुली में भात रे !

सैंया मोरा राजा बने
मैं मैने की पाँख रे !
हँसती मैं जागूँ सोऊँ
रोए मोरी आँख रे !

मन मोरा पिसा जाय
मैं पिसू जाँत रे !
कोई तोड़े नशा मोरा
कोई तोड़े खाट रे !

सब कोई चाहे
बनूँ मन की मीत रे !
बर्तन सब ढ़ो-ढ़ो बाजे
किसी में न प्रीत रे !

काहू की जीत बनूँ
काहू की हार रे !
बिटिया मोरी मुझसे पूछे
माँ कैसी रीत रे !