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कितनी कोशिशों के बाद / रवि प्रकाश

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कितनी कोशिशों के बाद

एक निरर्थक एहसास पाले हुए

कि नहीं गढ़ सका मैं तुम्हारे लिए

शब्दों का विन्यास

अपने ह्रदय का संछिप्त इतिहास

आत्मा का एकालाप !


कभी कभी तो मन करता है

रक्त की तरह दौड़ पडू

अपने शब्दों की धमनियों में

और निचोड़ दूँ अपनी सारी अकुलाहट

कि कैसे बांधू अपनी आत्मा के एकालाप को !


हर बार और बार बार कहा गया

तुम मेरे लिए

चांदनी रात कि तरह

अँधेरे में जुगनू कि तरह

आँखों में बसे ख्वाब कि तरह

बसंत और बरसात कि तरह

हर तरह तुम मेरे लिया सब कुछ हो !


बावजूद इसके

तुम जलाई गई

छोड़ दी गई फिर भी

एक बनवास के बाद फिर-फिर से

दानवी इमारतों के जंगल में

दफन कर दी गई

घर कि काल कोठरियों में ,

और घर के सजे धजे से

मेहमान कमरे में

मैं इज्जत का लिबास ओढ़े बैठा हूँ

और सड़क पर

तेज़ाब कि बोतल लिए एक हत्त्यारा बैठा है !


ऐसे में कौन सी आड़ी तिरछी रेखा में

टांक दूं

आत्मा के एकालाप को

और कह दूं

जो सब संचित है, रक्त रंजित है

मेरे पास कोई शब्द नहीं है

विन्यास नहीं है

उपमाओं का लिबास नहीं है

मान्यताओं पे विश्वास नहीं है

तुम्हारे मेरे बीच कोई सेतु नहीं है