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कल मरा बच्चा आज कैसे रोपूँ धान / मनोज कुमार झा

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हर जगह की मिट्टी जैसे क़ब्र की मिट्टी
पाँव के नीचे पड़ जाती जैसे उसी की गर्दन बार-बार
उखड़ ही नहीं पाता बिचड़ा अँगुलियां हुई मटर की छीमियाँ
        कुछ दिनों तक चाहिए मुझे पोटली में अन्न
        कुछ दिनों तक चाहिए मुझे हर रात नींद
        कुछ दिन तो हो दो बार नहान
पीपल के नीचे से हटाओ पत्थरों और पुजारियों को
        फूटी हुई शीशियों और जुआरियों को
ना ही मिला कोइ अपना कमरा
        मगर पाऊँ तो बित्ता-भर ज़मीन जहाँ रोऊँ तो गिरे आँसू
        बस पृथ्वी पर किसी के पाँव पर नहीं ।