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इन्हीं में जीते इन्हीं बस्तियों में मर रहते / इफ़्तिख़ार आरिफ़

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इन्हीं में जीते इन्हीं बस्तियों में मर रहते
ये चाहते थे मगर किस के नाम पर रहते

पयम्बरों से ज़मीनें वफ़ा नहीं करतीं
हम ऐसे कौन ख़ुदा थे के अपने घर रहते

परिंदे जाते न जाते पलट के घर अपने
पर अपने हम-शजरों से तो बा-ख़बर रहते

बस एक ख़ाक का एहसान है के ख़ैर से हैं
वगरना सूरत-ए-ख़ाशाक दर-ब-दर रहते

मेरे करीम जो तेरी रज़ा मगर इस बार
बरस गुज़र गए शाख़ों के बे-समर रहते