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कस-ओ-नाकस हैं दस्त-ओ-तलब के आगे / 'महताब' हैदर नक़वी
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कस-ओ-नाकस हैं दस्त-ओ-तलब के आगे
सर-ए-पिन्दार झुका जाता है सबके आगे
मुझसे बावस्ता अज़ल से है कोई मौज-ए-सराब
कबसे मैं तश्नादहन हूँ तेरे लब के आगे
अपने सूरज के भला किसके मुक़ाबिल रखिये
माँद पड़ जाते हैं सब ताब के तब के आगे
आज भी हूँ मैं उसी गिरिया-ए-शब में महसूर
जिनको जना था वो सब जा चुके कब के आगे
बस इसी वास्ते रोशन हैये ग़मख़ाना-ए-दिल
इक शहर भी है कहीं हिज्र की श्स्ब के आगे
और क्या दौलत-ए-परवेज़ मिलेगी तुझको
हेच है दौलत-ए-कुल शेर-ओ-अदब के आगे