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इश्क़ का इख़्तिताम करते हैं / वज़ीर अली 'सबा' लखनवी

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इश्क़ का इख़्तिताम करते हैं
दिल का क़िस्सा तमाम करते हैं

क़हर है क़त्ल-ए-आम करते हैं
तुर्क तुर्की तमाम करते हैं

ताक़-ए-अब्र से उन के दर गुज़रे
हम यहीं से सलाम करते हैं

शैख़ उस से पनाह माँगते हैं
बरहमन राम राम करते हैं

जौहरी पर तेरे दुर-ए-दंदाँ
आब ओ दाना हराम करते हैं

या इलाही हलाल हों वाइज़
दुख़्त-ए-रज़ को हराम करते हैं

आप के मुँह लगी है दुख़्तर-ए-रज़
बातें होंटों से जाम करते हैं

क़ाबिल-ए-गुफ़्तुगू रक़ीब नहीं
आप किस से कलाम करते हैं

रात भर मेरे नाला-ए-पुर-दर्द
नींद उन की हराम करते हैं

ऐ ‘सबा’ क्यूँ किसी का दिल तोड़ें
काबे का एहतिराम करते हैं