भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दामन भी चाक और गिरेबाँ भी तार तार / बेगम रज़िया हलीम जंग
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:20, 16 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बेगम रज़िया हलीम जंग }} {{KKCatGhazal}} <poem> दा...' के साथ नया पन्ना बनाया)
दामन भी चाक और गिरेबाँ भी तार तार
दिल टुकड़े हो के देखिये रोता है ज़ार ज़ार
काँधे भी झुक गए हैं गुनाहों के बोझ से
लरज़ाँ हूँ हर कदम पे मैं गिरती हूँ बार-बरा
ईमाँ को कर क़वी मेरे क़ुर्बत भी अपनी दे
मुझ को पनाह दे तेरी रहमत के मैं निसार
अल्लाह तुझ को तोला ओ रत्ती की है ख़बर
बच्चों को दे अमाँ मेरे वो भी हैं होनहार