भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

निकले तिरी दुनिया के सितम और तरह के / शान-उल-हक़ हक़्क़ी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:31, 9 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शान-उल-हक़ हक़्क़ी }} {{KKCatGhazal}} <poem> निकल...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

निकले तिरी दुनिया के सितम और तरह के
दरकार मिरे दिल को थे ग़म और तरह के

तुम और तरह के सही हम और तरह के
हा जाएँ बस अब क़ौल-ओ-क़सम और तरह के

बुत-ख़ाने का मंज़र ब-ख़ुदा आज ही देखा
थे मेरे तसव्वुर में सनम और तरह के

करती हैं मिरे दिल से वो ख़ामोश निगाहें
कुछ रम्ज़ इशारों से भी कम और तरह के

ग़म होते रहे दिल में कम-ओ-बेश व लेकिन
बेश और तरह के हुए कम और तरह के

मायूस तलब जान के इस दश्त-ए-हवस में
यारों ने दिए हैं मुझ दम और तरह के

रहती है किसी और तरफ़ आस नज़र की
हैं वक़्त के हाथों में अलम और तरह के

रहबर का तो अंदाज़-ए-क़दम और ही कुछ था
हैं क़ाफ़िले वालों के क़दम और तरह के

कुछ और हैं उस हुस्न-ए-बसंती की अदाएँ
हैं नाज़ निगारान-ए-अजम और तरह के

कहते हो कि फीकी सी रूनखी सी हैं ग़ज़लें
लो शेर सुनाएँ तुम्हें हम और तरह के

ये किस ने किया याद कहाँ जाते हो ‘हक़्क़ी’
कुछ आज तो पड़ते हैं क़दम और तरह के