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आओ तुम आ कर बसा दो मेरे ख्वाबों के खंडर / रमेश 'कँवल'

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आओ तुम आकर बसा दो मेरे ख़्वाबों के खंडर
क्या पता कब ख़्त्म हो जाये ये सांसों का सफ़र

दिल के आंगन मे कभी मौसम मुलाक़ातों का हो
तेरे इक स्पर्श से रौशन हों मेरे बामो-दर

मेरे दिल की घाटियों में रू-ब-रू है आजकल
तेरे मिलने की खु़शी तुझ से बिछड़ जाने का डर

इक घड़ी भी आंख से ओझल न होने दे कभी
तू कभी मेरे भी दर्शन को तरस जाये अगर .

जब दरख़्तों1 को ज़ुबां मिल जाये गीत तब देखना
मौसमों के क़हर2 से चीखेंगे ये बर्गो-शजर3

मेरे मन के द्वीप में वीरानियां जलने लगीं
एक नर हैरान था, इक नारी को पहचान कर

दस्तकें दरवाज़-ए—अहसास पर बैचेन हैं
और लम्हों के घरौंदों में 'कंवल’ है बेख़बर


1. वृक्ष 2. प्रकोप 3. पेड़-पत्ते।