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एक विफल आतंकवादी का आत्म-स्वीकार - 2 / नीलाभ

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हिन्दुस्तान के चमचा सरताज !
मैं एक अदना-सा चमचा
तुम्हारा इस्तक़बाल करता हूँ
गो सारी कोशिश मेरी
अपना वुजूद बदल कर
ख़ंजर में तब्दील हो जाने की है
जिसमें मैं रहता हूँ बारम्बार नाकाम

यह बारम्बार भी एक उम्दा लफ़्ज़ है
अपनी देसी ज़बान का
मेहरबानी करके उसे हिन्दी, उर्दू या हिन्दुस्तानी न कहें
तीन सिरों वाले अजदहे को पैदा करते हुए

हाँ, तो डियर पी० एम०
मैं हरचन्द कोशिश करके भी
ख़ंजर में, आर० डी० एक्स० में, टी० एन० टी० में,
किसी जंगजू मरजीवड़े में, किसी लड़के में,
किसी युद्धलाट में
तब्दील नहीं हो पाया
ताहम कोशिश मेरी अव्वल से आख़िर तक
आतंकवादी बनने की थी
ताकि जी न सकूँ इस सरज़मीं पर
इन्सान की तरह
तो कम-अज़-कम मर तो सकूँ
इन्सान की मानिन्द
आपकी इस महान् भारत भूमि पर