भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया / इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:17, 22 मार्च 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन |संग्रह= }} {{K...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया
जिस मुसलमाँ ने उसे देखा वो काफ़र हो गया

दिल-बरों के नक़्श-ए-पा में है सदफ़ का सा असर
जो मेरा आँसू गिरा उस में सो गौहर हो गया

क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
बर्ग-ए-गुल की तरह हर नाख़ुन मुअत्तर हो गया

आँख से निकले पे आँसू का ख़ुदा हाफ़िज़ ‘यक़ीं’
घर से जो बाहर गया लड़का सो अबतर हो गया