भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस तग-ओ-दौ ने आख़िरश मुझ को निढाल कर दिया / राशिद जमाल

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:01, 24 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राशिद जमाल |संग्रह= }} {{KKCatGhazal‎}}‎ <poem> इ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस तग-ओ-दौ ने आख़िरश मुझ को निढाल कर दिया
जीने के एहतिमाम ने जीना मुहाल कर दिया

अब हम असीर-ए-ज़ुल्फ़ हैं किस के किसी को क्या ग़रज़
उस ने तो अपनी क़ैद से हम को बहाल कर दिया

बज़्म-ए-तरब सजाएँ क्या अब हम हँसें हँसाएँ क्या
तुम ने तो हम को जान-ए-जाँ वक़्फ़-ए-मलाल कर दिया

शेर ओ सुख़न का इक हुनर रखते थे हम सो शुक्र है
कुछ दिल की बात कह सके कुछ अर्ज़-ए-हाल कर दिया

कुछ इश्क विश्क हो गया कुछ शेर वेर कह लिए
करने का कोई काम तो ‘राशिद’ जमाल कर दिया