भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

किसी इंसान को अपना नहीं रहने देते / सगीर मलाल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:25, 12 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सगीर मलाल |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> किसी ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

किसी इंसान को अपना नहीं रहने देते
शहर ऐसे हैं कि तन्हा नहीं रहने देते

दाएरे चंद हैं गर्दिश में अज़ल से जो यहाँ
कोई भी चीज़ हमेशा नहीं रहने देते

कभी नाकाम भी हो जाते हैं वो लोग कि जो
वापसी का कोई रस्ता नहीं रहने देते

उन से बचना कि बिछाते हैं पनाहें पहले
फिर यही लोग कहीं का नहीं रहने देते

जिस को एहसास हो अफ़्लाक की तन्हाई का
देर तक उस को अकेला नहीं रहने देते

वाक़ई नूर लिए फिरते हैं सर पे कोई
अपने अतराफ़ जो साया नहीं रहने देते

ज़िंदगी प्यारी है लोगों को अगर इतनी ‘मलाल’
क्यूँ मसीहाओं को जिंदा नहीं रहने देते