भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तारो से भरी राहगुज़र ले के गई है / मज़हर इमाम

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:03, 21 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मज़हर इमाम |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> तार...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तारो से भरी राहगुज़र ले के गई है
ये सुब्ह चराग़ो का नगर ले के गई है

तुम को तो पता होगा कि हमराह तुम्हीं थे
दुनिया मिरे ख़्वाबो को किधर ले के गई है

प्यासे थे तो पानी को पुकारा था हमीं ने
नदी इधर आई है घर ले के गई है

इक मंजिल-ए-बे -मक़्सद ओ बे-नाम की ख़्वाहिश
काँटों की सवारी पे सफ़र ले के गई है

बे-बाल-ओ-परी अब भी सर-ए-दश्‍त है महफ़ूज
आँधी तो फ़क़त बर्ग ओ समर ले के गई है

शायद कि अब आए तिरी क़़ुर्बत की नई फ़स्ल
इस बार दूआ बाब-ए-असर ले के गई है

चमकेगा अभी ज़ेवर-ए-शहज़ादी-ए-महताब
उस तक वो मिरे शब की ख़बर ले के गई है