भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जब से अपनाई है फ़ितरत उस कली ने ख़ार की / ज़ाहिद अबरोल

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र 'द्विज' (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:52, 27 अक्टूबर 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल |संग्रह=दरिया दरिया-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


जब से अपनाई है फितरत उस कली ने ख़ार की
ख़ार सी लगने लगी है हर कली गुलज़ार की

आ गए वो दाद देने हसरत-ए-दीदार की
ख़त्म होने को थी जिस दम ज़िन्दगी बीमार की

चांद, गुल, क़ौस-ए-कुज़ह सब को ख़फ़ा हम ने किया
नामुकम्मल ही रही तारीफ़ उस रूख़्सार की

तोड़ दे तन्हाइयों की आहनी दीवार को
ख़ामुशी खा जाएगी वरना इसी दीवार की

मौसम-ए-बारिश में घर से कम निकलते हैं सभी
इन दिनों में सूख जाती है नदी दीदार की

यास के साए में है “ज़ाहिद” उमीदों का चमन
ज़िन्दगी अब मुस्कराहट है किसी बीमार की

शब्दार्थ
<references/>