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मासूम परिन्दों के टूटे हुए पर देखो / ज़ाहिद अबरोल

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मा‘सूम परिन्दों के, टूटे हुए पर देखो
बस्ती के फ़क़ीरो अब, जंगल में ही घर देखो

बंध जाता है जब रिश्तः, रस्ते का मुसाफ़िर से
तब दोनों के चेहरों पर, इक नूर-ए-दिगर देखो

बीमारी की हालत में, ‘सुग़रा’ को जो छोड़ आये
उनका भी जिगर देखो, और अज़्म-ए-सफ़र देखो

पŸाों की ज़बां समझंे, शाख़ों की फुग़ां समझंे
इस फ़न के हैं हम माहिर, अपना यह हुनर देखो

यह अहल-ए-सियासत अब, तहज़ीब नई लाए
ख़ुद लूट के इस जानिब, कहते हैं उधर देखो

बादल की तरह तन्हा, आवारः हैं हम “ज़ाहिद”
ले जाये कहां हमको, अब अपना सफ़र देखो


शब्दार्थ
<references/>