भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्यूँ कहते हो कोई कमतर होता है / सलीम रज़ा रीवा

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:30, 6 मई 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सलीम रज़ा रीवा |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्यूँ कहते हो कोई कमतर होता है!
दुनिया में इन्सान बराबर होता है!

पाकीज़ा जज़्बात है जिसके सीने में!
उसका दिल भरपूर मुनौअर होता है!

ज़ाहिद का क्या काम भला मैख़ाने में!
मैख़ाना तो रिंदों का घर होता है!

जो तारीकी में भी रस्ता दिखलाए!
वो ही हमदम वो ही रहबर होता है!

टूटा-फूटा गिरा-पड़ा कुछ तंग सही!
अपना घर तो अपना ही घर होता है!

ताल में पंछी पनघट गागर चौपालें!
कितना सुन्दर गाँव का मंज़र होता है!

कैद करो न इनको पिंजरों में कोई!
अम्न का पंछी "रज़ा कबूतर होता है!