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प्रेम की कुछ बातें / बृजेश नीरज

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क्या मित्र तुम भी कैसी बातें ले कर बैठ गए
मैं नहीं रच पाता प्रेमगीत
रूमानी बातों से बासी समोसे की बास आती है मुझे
माशूक की जुल्फ़ों की जगह उभर आती हैं
आस-पास की बजबजाती नालियाँ
प्रेमिका के आलिंगन के एहसास की जगह
जकड़ लेती है पसीने से तर-ब-तर शरीर की गन्ध

तुम हँस रहे हो
नहीं, नहीं, मेरा भेंजा बिलकुल दुरुस्त है

देखो मित्र,
भूखा पेट रूमानियत का बोझ नहीं उठा पाता
किसी पथरीली ज़मीन पर चलते
नहीं उभरती देवदार के वृक्षों की कल्पना
सूखते एहसासों पर चिनार के वृक्ष नहीं उगते
बारूद की गन्ध से भरे नथुने
नहीं महसूस कर पाते बेला की महक

जब प्रेम
युवती की नंगी देह में डूब जाना भर हो
तब कविता भी
पायजामे बँधे नाड़े से अधिक तो नहीं

ऐसे समय
जब बिवाइयों से रिसते ख़ून के कतरों से
बदल रहा है मखमली घास का रंग
लिजलिजे शब्दों का बोझ उठाए
कितनी दूर चला जा सकता है

शक्ति द्वारा कमज़ोर के अस्तित्व को
नकार दिए जाने के इस दौर में
जब पूँजी आदमी को निगल रही हो
मैं मौन खड़ा
बौद्धिक जुगाली करती
नपुंसक कौम का हिस्सा नहीं बनना चाहता