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थोड़ा और ! / रश्मि भारद्वाज

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अपनी शाख से बिछड़ा
सूखे पत्ते-सा मण्डराता एक और दिन
अपनी आवारगी के साथ
ले आता है यह याद भी
कि बहुत-कुछ है
जिसे दरकार है थोड़ी-सी नमी की
थोड़ा और सहेजे जाने की

बहुत कुछ है, जो ज़रूरी है
बचाया जाना
इस जलती–सुलगती फिज़ा में
जैसे कुछ टुकड़े हँसी की हरियाली
कुछ अधखिली भोलेपन की फ़सलें
बहते मीठे पानी-सी कुछ यादें
और बसन्त
हमारे–तुम्हारे मन का